यदि ध्यान से जीवन में शांति हो जाती है, तो फिर ध्यान सारे देश में फैल क्यों नहीं जाता है ?

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*💫यदि ध्यान से जीवन में शांति हो जाती है, तो फिर ध्यान सारे देश में फैल क्यों नहीं जाता है ?*

पहली बात तो यह कि बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर जो शांत होना चाहते हैं। शांत होना बहुत कठिन है। असल में शांति की आकांक्षा को उत्पन्न करना ही बहुत कठिन है। और कठिनाई शांति में नहीं है। कठिनाई इस बात में है कि जब तक कोई आदमी ठीक से अशांत न हो जाये तब तक शांति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। पूरी तरह अशांत हुए बिना कोई शांत होने की यात्रा पर नहीं निकलता है। और हम पूरी तरह अशांत नहीं हैं। यदि हम पूरी तरह अशांत हो जायें तो हमें शांत होना ही पड़े। लेकिन हम इतने अधूरे जीते हैं कि शांति तो बहुत दूर,अशांति भी पूरी नहीं हो पाती।

हमारी बीमारी भी इतनी कम है कि हम चिकित्सा की तलाश में भी नहीं निकलते। जब बीमारी बढ़ जाती है तो चिकित्सक की खोज शुरू होती है। लेकिन हम बचपन से ही इस भांति पाले जाते हैं कि हम कुछ भी पूरी तरह नहीं कर पाते। न तो हम क्रोध पूरी तरह कर पाते हैं कि अशांत हो जायें। न ही चिंता पूरी तरह कर पाते हैं कि मन व्यथित हो जाये। न हम द्वेष पूरी तरह कर पाते हैं, न घृणा पूरी तरह कर पाते हैं कि मन में आग लग जाये और नर्क पैदा हो जाये। हम इतने कुनकुने जीते हैं कि कभी आग जल ही नहीं पाती और इसलिए पानी खोजने भी हम नहीं निकलते जो उसे बुझा दे। हमारा कुनकुना जीना ही,ल्यूक-वार्म-लिविंग ही हमारी कठिनाई है।

जब कोई मुझसे पूछता है कि जब शांत होना इतना आसान है तो बहुत लोग शांत क्यों नहीं हो जाते। तो पहली बात तो यह है कि वे अभी ठीक से अशांत ही नहीं हुए हैं। उन्हें अशांत होना पड़ेगा। शांत तो आदमी क्षण-भर में हो जाता है, अशांत होने के लिए जन्म-जन्म लेने पड़ते हैं, लंबी यात्रा है। यह इतने जन्मों की हमारी जो यात्रा है,यह शांति की यात्रा नहीं है, शांति तो क्षण-भर में घटित हो जाती है। यह इतने जन्मों की यात्रा हमारे अशांत होने की यात्रा है जो हम पूरी तरह अशांत हो जाते हैं। जब अशांति की चरम अवस्था आ जाती है,क्लाइमेक्स आ जाता है, तब हम लौटना शुरू करते हैं।

बुद्ध एक गांव में गये--और जो आज मुझसे आपने पूछा है एक आदमी ने उनसे भी आकर पूछा। और उस आदमी ने उनसे कहा था कि चालीस वर्षों से निरंतर आप गांव-गांव घूमते हैं, कितने लोग शांत हुए, कितने लोग मोक्ष गये, कितने लोगों का निर्वाण हो गया? कुछ गिनती है, कुछ हिसाब है? वह आदमी बड़ा हिसाबी रहा होगा। बुद्ध को उसने मुश्किल में डाल दिया होगा क्योंकि बुद्ध जैसे लोग खाता-बही लेकर नहीं चलते हैं कि हिसाब लगाकर रखें कि कौन शांत हो गया, कौन नहीं शांत हो गया। बुद्ध की कोई दुकान तो नहीं है कि हिसाब रखें। 

बुद्ध मुश्किल में पड़ गये होंगे। उस आदमी ने कहा, बताइये, चालीस साल से घूम रहे हैं, क्या फायदा घूमने का? बुद्ध ने कहा, एक काम करो, सांझ आ जाना, तब तक मैं भी हिसाब लगा लूं। और एक छोटा-सा काम है, वह भी तुम कर लाना। फिर मैं तुम्हें उत्तर दे दूंगा। उस आदमी ने कहा बड़ी खुशी से, क्या काम है वह मैं कर लाऊंगा। और सांझ आ जाता हूं हिसाब पक्का रखना, मैं जानना ही चाहता हूं कि कितने लोगों को मोक्ष के दर्शन हुए; कितने लोगों ने परमात्मा पा लिया; कितने लोग आनंद को उपलब्ध हो गये। क्योंकि जब तक मुझे यह पता न लग जाये कि कितने लोग हो गये हैं, तब तक मैं निकल भी नहीं सकता यात्रा पर। क्योंकि पक्का पता तो चल जाये कि किसी को हुआ भी है या नहीं हुआ।

बुद्ध ने उससे कहा, कि यह कागज ले जाओ और गांव में एक-एक आदमी से पूछ आओ, उसकी जिंदगी की आकांक्षा क्या है, वह चाहता क्या है? वह आदमी गया। उसने गांव में--एक छोटा सा गांव था, सौ पचास लोगों की छोटी-सी झोपड़ियां थीं, उसने एक-एक घर में जाकर पूछा। किसी ने कहा कि धन की बहुत जरूरत है, और किसी ने कहा कि बेटा नहीं है, बेटा चाहिए। और किसी ने कहा--और सब तो ठीक है लेकिन पत्नी नहीं है, पत्नी चाहिए। किसी ने कहा--और सब ठीक है, लेकिन स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, बीमारी पकड़े रहती है, इलाज चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। कोई बूढ़ा था, उसने कहा कि उम्र चुकने के करीब आ गयी, अगर थोड़ी उम्र मिल जाये और तो बस, और सब ठीक है। सारे गांव में घूमकर सांझ को जब वह लौटने लगा तो रास्ते में डरने लगा कि बुद्ध से क्या कहूंगा जाकर। क्योंकि उसे खयाल आ गया कि शायद बुद्ध ने उसके प्रश्न का उत्तर ही दिया है। गांव-भर में एक आदमी नहीं मिला जिसने कहा, शांति चाहिए;जिसने कहा, परमात्मा चाहिए; जिसने कहा आनंद चाहिए। बुद्ध के सामने खड़ा हो गया। सुबह बुद्ध मुश्किल में पड़ गये कि सांझ वह आदमी मुश्किल में पड़ गया।

बुद्ध ने कहा, ले आये हो? उसने कहा, ले तो आया हूं। बुद्ध ने कहा,कितने लोग शांति चाहते हैं? उस आदमी ने कहा, एक भी नहीं मिला गांव में। बुद्ध ने कहा, तू चाहता है शांति? तो रुक जा। उसने कहा,लेकिन अभी तो मैं जवान हूं, अभी शांति लेकर क्या करूंगा? जब उम्र थोड़ी ढल जाये तो मैं आऊंगा आपके चरणों में, अभी तो वक्त नहीं है,अभी तो जीने का समय है। तो बुद्ध ने कहा, फिर पूछता है वही सवाल? कि कितने लोग शांत हो गये? उसने कहा, अब नहीं पूछता हूं।

*कोई किसी को शांत नहीं कर सकता, लेकिन हम शांत हो सकते हैं। पर अशांत हो गये हों तभी।*

➡ *जीवन ही है प्रभु (साधना शिविर)*

*💕ओशो💕👏👏👏👏👏*

🔴भविष्य की चिंता में इस क्षण को मत चूको!
यह मत सोचो कि आगे क्या होना है। जो इस घड़ी हो रहा है, उसे भोगो! जो इस घड़ी मिल रहा है, उसमें जियो! उसे पिओ! जो इस घड़ी तुम्हारे पास पड़ा हैं, उसे मत चूको! जो नदी सामने बह रही है, उसमें डूबो, आगे क्या होता है? उसे गुजरने दो। क्योंकि आगे का ख्याल आते ही, जो मौजूद है उससे आंखे बंद हो जाती है। और फिर चिंतन, विचार, कल्पना, स्वप्न सबके सब चल पड़ते है! फिर तुम सत्य से दूर चल पडते हो, फिर वर्तमान छूट जाता है। फिर सत्ता से टूट जाते हो। सत्ता से टूटने का उपाय है! आगे का विचार।
अगर थोड़ा सा सुख मिल रहा है तो उसे भोगो! अगर तुम इस क्षण सुखी रहे, तो अगला क्षण इससे ज्यादा सुख देगा, यह निश्चित है। क्योंकि तुम सुखी होने की कला को थोड़ा और ज्यादा सीख चूके होओगे। अगर इस क्षण तुम आनंदित हो, तो अगला क्षण ज्यादा आनंद देगा, यह निश्चित है! क्योंकि अगला क्षण आयेगा कहाँ से? तुम्हारे भीतर से ही जन्मेगा! तुम्हारे आनंद में डुबा हुआ जन्मेगा! अगला क्षण भी तुमसे ही निकलेगा।
अगर यह फूल पौधे पर सुंदर लग रहा है, तो अगला फूल और भी सुंदर होगा। पौधा तब तक और भी अनुभवी हो गया होगा। और जी लिया होगा थोड़ी देर, जीवन को और समझ गया, जीवन से और थोड़ा परिचित हो गया। तो तुम्हारा अगला क्षण तुमसे ही निकलेगा। तुम अगर अभी दुखी हो तो अगला क्षण और भी ज्यादा दुखी होगा, तुम अगर अभी परेशान हो तो अगले क्षण में परेशानी और बढ़ जायेगी। क्योंकि एक क्षण की परेशानी तुम और जोड़ लोगे, तुम्हारी परेशानी का संग्रह और बड़ा होता जाएगा। इस क्षण की चिंता करो, बस उतना ही काफी है जीने के लिये, इस क्षण के पार मत जाओ! इस क्षण में जिओ! इसी क्षण को जिओ। इसी क्षण से दूसरा क्षण अपने आप निकलता है।
तुम्हें उसकी चिंता, उसका विचार, उसका आयोजन करने की कोई जरूरत नहीं है। और अगर तुमने आयोजन किया, तो तुम यहाँ चूक जाओगे। और इसी चूक से निकलेगा, अगला क्षण! तो महाचूक होगी फिर! अगले क्षण, तुम फिर अगले क्षण के लिए सोचोगे, तुम ठहरोगे कहाँ? तुम घर कहाँ बनाओगे? आज तुम कल के लिए सोचोगे, कल जब आयेगा तो आज की भांति ही आयेगा, फिर तुम, कल के लिए सोचोगे! कल कभी आया है किसी का? जिसे तुम आज कह रहे हो! यह भी तो कल था। इसके लिए भी तो तुम कल सोच रहे थे, और आज यह आ गया है, और अब तुम फिर आगे के लिए सोच रहे हो। यही तो दृष्टि की बड़ी गहरी भ्रांति है। इससे जो सामने है, वह तो दिखता ही नहीं! और जो नहीं होता है, उसका हम विचार करते जाते है !!

~ओशो

अनंत की पुकार

राजा भोज के दरबार में एक ज्योतिषी आया। उसने राजा भोज का हाथ देखा और कहा कि तू अत्यंत अभागा व्यक्ति है। अपने लड़के को अरथी पर तू ही चढ़ाएगा। अपनी पत्नी को भी अरथी पर तू ही चढ़ाएगा। तेरे सारे लड़के, तेरी सारी लड़कियां - तू ही उनको मरघट तक पहुंचाएगा। उस भोज ने क्रोध से उस ज्योतिषी को हथकड़ियां डलवा दीं और कहा, इसको जाकर जेलखाने में बंद कर दो। कैसे बोलना चाहिए, यह भी इसे पता नहीं है। यह क्या बोल रहा है पागल!

कालिदास बैठ कर यह सारी बात सुनते थे। जब वह ज्योतिषी चला गया तो कालिदास ने कहा कि उस ज्योतिषी को पुरस्कार देकर विदा कर दें।

राजा ने कहा, उसे पुरस्कार दूं? सुनते हो तुम उसने क्या कहा था!

कालिदास ने कहा कि क्या मैं भी आपका हाथ देखूं? कालिदास ने हाथ देखा और कहा कि आप बहुत धन्यभागी हैं। आप सौ वर्ष के पार तक जीएंगे। आप बहुत लंबी उम्र उपलब्ध किए हैं। आप इतने धन्यभागी हैं कि आपके पुत्र भी आपकी उम्र नहीं पा सकेंगे, पीछे छूट जाएंगे।

राजा ने कहा, क्या यही वह कहता था?

कालिदास ने कहा, यही वह कह रहा था, लेकिन उसके कहने का ढंग बिलकुल ही गड़बड़ था।

भोज ने उसे एक लाख रुपये देकर ईनाम दिया, और उसे विदा किया सम्मान से। और उससे जाते वक्त कहा, मेरे मित्र, अगर यही तुझे कहना था तो ऐसे ही तूने क्यों न कहा? तूने कहने का ढंग कौन सा चुना था!

जोसुआ लिएबमेन करके एक यहूदी विचारक और पुरोहित था। उसने संस्मरण लिखा है कि जब मैं युवा था और पहली दफा गुरु के आश्रम में शिक्षा लेने गया, तो मेरा एक मित्र भी मेरे साथ था। हम दोनों को सिगरेट पीने की आदत थी। हम दोनों ही परेशान थे कि क्या करें, क्या न करें? सिर्फ एक घंटा मोनेस्ट्री के बाहर ईश्वर-चिंतन के लिए बगिया में जाने को मिलता था, उसी वक्त पी सकते थे सिगरेट, और तो कोई मौका नहीं था। लेकिन फिर भी यह सोचा कि पीने के पहले गुरु को पूछ लेना उचित है। तो मैं और मेरा मित्र दोनों पूछने गए। जब मैं पूछ कर वापस लौटा तो मैं बहुत क्रोध में था, क्योंकि गुरु ने मुझे मना कर दिया था। और जब मैं बगीचे में आया तो मेरा क्रोध और भी बढ़ गया,मेरा मित्र तो आकर बेंच पर बैठा हुआ सिगरेट पी रहा था। मालूम होता है गुरु ने उसे हां भर दी है। यह तो हद अन्याय हो गया था। मैंने जाकर उस मित्र को कहा कि मुझे तो मना कर दिया है उन्होंने, क्या तुम्हें हां भर दी है? या कि तुम बिना उनकी हां किए ही सिगरेट पी रहे हो?

उस मित्र ने कहा कि तुमने क्या पूछा था?

लिएबमेन ने कहा, मैंने पूछा था कि क्या हम ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकते हैं? उन्होंने कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था?

उसने कहा, मैंने पूछा था कि क्या हम सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन कर सकते हैं? उन्होंने कहा, हां, बिलकुल कर सकते हो।

ये दोनों बातें बिलकुल एक थीं: ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पीएं या सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन करें। लेकिन दोनों बातें बिलकुल अलग हो गईं। एक बात के उत्तर में उसी आदमी ने इनकार कर दिया,दूसरी बात के उत्तर में उसी आदमी ने हां भर दिया। निश्चित ही कौन स्वीकार करेगा कि ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पीएं? कौन अस्वीकार करेगा कि सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन करें या न करें?कोई भी कहेगा कि अच्छा ही है। अगर सिगरेट पीते समय भी ईश्वर-चिंतन करते हो तो बुरा क्या है, ठीक है।

उस दूसरे युवक ने कहा कि पहले मेरे मन में भी वही पूछने का खयाल आया था, क्योंकि सीधी बात वही थी। लेकिन फिर तत्क्षण मुझे खयाल आया कि भूल हो जाएगी। अगर मैं पूछता हूं कि ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं, तो मैंने पहले ही जान लिया था कि उत्तर नहीं में मिलने वाला है।

लिएबमेन ने लिखा है कि फिर मैंने जिंदगी में बहुत बार इसका प्रयोग किया। और तब तो धीरे-धीरे मुझे समझ में आया कि दूसरे आदमी से हां या न निकलवा लेना उस आदमी के हाथ में नहीं, तुम्हारे हाथ में है। वह दूसरे आदमी को पता भी नहीं चलता कि तुमने कब उससे हां निकलवा ली है या कब तुमने न निकलवा ली है। और अगर दूसरा आदमी न करता है, तो सोच लेना कि हमसे कहीं कोई भूल हो गई है। हो सकता है हमारे भाव बिलकुल सही हों, हमारा खयाल सही हो,सिर्फ हमारा मौजूद करने का ढंग गलत हो गया होगा। अन्यथा इस दुनिया में कोई भी आदमी न करने को तैयार नहीं है। हर आदमी हां करना चाहता है। लेकिन हां कहलवाने वाले लोग, उनकी तैयारी,उनकी समझ, उनकी सूझ, उस सब पर निर्भर करता है कि हम कैसे मौजूद करते हैं।

अनंत की पुकार

ओशो