तुसी सानूं परमात्मा दे दरसन करा देओ, तुहाडी बड़ी मेहरबानी होएगी

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*💫तुसी सानूं परमात्मा दे दरसन करा देओ, तुहाडी बड़ी मेहरबानी होएगी!💫*

संत महाराज! तुम्हें भी पहरे पर बैठे-बैठे न मालूम क्या-क्या सूझता है! वहां दरवाजे पर पहरा देते-देते एक से एक ऊंचे खयाल तुम्हें उठते हैं। पहले भैया, परमात्मा को भी तो पूछने दो कि उसे तुम्हारे दर्शन करने हैं कि नहीं! आपने चाहा, सो बड़ी कृपा! मगर यह मामला दोत्तरफा है। कोई तुम्हीं थोड़े ही उसके दर्शन करोगे, उसको भी तो तुम्हारे दर्शन करने पड़ेंगे। तो पहले मुझे उससे पूछने दो कि संत महाराज के दर्शन करने हैं? जहां तक मैं समझता हूं, अभी वह राजी नहीं है। तो तुम थोड़ा ठहरो।

 

ऐसे खाली बैठे-बैठे ऊंचे खयाल उठते हैं।

ट्रेन लेट थी और हर घंटे के बाद लेट होने की अवधि बढ़ती ही जा रही थी। एक घंटा, दो घंटे से बढ़ते-बढ़ते ट्रेन पूरे छह घंटे बाद भी नदारद। आखिर मुल्ला नसरुद्दीन झुंझला उठा और स्टेशन मास्टर के पास जा पहुंचा और उससे बोला: सुनिए भाई साहब, यहां आस-पास कोई कब्रिस्तान है या नहीं?

स्टेशन मास्टर ने जवाब दिया: नहीं तो, क्यों क्या बात है?

मुल्ला बोला: अजी जनाब, मैं यह सोच रहा था कि ट्रेन का इंतजार करते-करते जो लोग मर जाते होंगे, उन्हें कहां दफनाया जाता होगा?

अब तुम भी बैठे...दरवाजे पर बैठे, सो ऊंचे-ऊंचे खयाल आते हैं कि तुसी सानूं परमात्मा दे दरसन करा देओ! परमात्मा ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा भैया? तुम अपने घर चंगे, वह अपने घर चंगा--और कठौती में गंगा! न वह तुम्हारे पीछे पड़ा, न तुम उसके पीछे पड़ो। उसको खुद ही झंझट लेनी होगी तो वह खुद ही तुम्हारे पीछे पड़ेगा। तुम तो शांति से बैठे रहो। ऐसी दार्शनिक बातों में न पड़ा करो। पंजाबी होकर ये बातें शोभा देतीं भी नहीं।

शुरू-शुरू संत महाराज जब आए थे, जब वे ध्यान करते थे, तो उनका ध्यान देखने लायक था। जहां वे ध्यान करते थे, वहां जगह खाली करवा देनी पड़ती थी, क्योंकि वे ध्यान में एकदम क्या-क्या बकते, क्या-क्या वजनी गालियां देते! घूंसे तानते, कुश्तमकुश्ती करते। किससे करते, वह कुछ पता नहीं चलता। किसी अदृश्य शक्ति से बिलकुल जूझते। जैसे भूत-प्रेतों से लड़ रहे हों। मुझसे आकर लोग पूछते कि संत क्या करते हैं? मैं कहता: कुछ नहीं, पंजाबी हैं। ऐसे धीरे-धीरे पंजाबीपन निकल जाएगा। निकल गया। अब शांत हो गए हैं। जब से शांत हो गए हैं, मैं उनसे संत महाराज कहने लगा हूं। संत भी उनको नाम इसीलिए दिया था कि भैया! किसी भी तरह शांत हो जाओ! शांति धारण करो!

हो जाती है ऐसी झंझट। मैं नवसारी में एक शिविर ले रहा था। कोई तीन सौ मित्र शिविर में ध्यान कर रहे थे। एक सरदार जी आ गए। अच्छी बात कि सरदार जी आए! मगर उन्होंने ध्यान क्या किया...सक्रिय ध्यान में उन्होंने मार-पीट शुरू कर दी! संत तो हवाई मार-पीट करते थे, उन्होंने बिलकुल मार-पीट शुरू कर दी। आस-पास के दो-चार-दस आदमियों की पिटाई कर दी। जो पास आ जाए उसको ही लगा दें। और इस तरह बिफराए कि बिलकुल जेहाद छेड़ दिया--धर्मयुद्ध! बामुश्किल उनको रोका जा सका। उनको जब रोका गया तो वे चिल्लाएं कि मुझे ये ध्यान नहीं करने दे रहे हैं!

ये ध्यान करने भी तुम्हें कैसे दें! तुम किसी का सिर खोल दोगे, किसी का हाथ-पैर तोड़ दोगे। वे कह रहे हैं: अभी तो मेरा ध्यान जोश में आ रहा है। और आपने ही तो कहा कि हो जाने दो जो होना है, निकाल दो सब चीजें! सो जो-जो भरा है...।

वे कुछ बुरे आदमी नहीं थे। बाद में सबसे माफी मांगी उन्होंने कि भाई क्षमा करना, कोई से दुश्मनी नहीं है, किसी का कुछ मैं बिगाड़ना नहीं चाहता। मगर मन बड़ा मेरा हलका भी हो गया है। कई दिनों से यह बात चढ़ी थी। वह तो यही कहो कि कृपाण वगैरह साथ नहीं लाए थे।

संत अब शांत हो गए हैं। और उनको काम मैंने दिया है द्वार पर पहरे का, क्योंकि उससे ज्यादा और ध्यानपूर्ण कोई काम नहीं है; वहां कुछ करना नहीं है, सिर्फ बैठे रहना है। दरवाजे से लोगों का आना-जाना है, वह देखते रहना है। यही तो ध्यान की प्रक्रिया है। ध्यान में भी ऐसे ही पहरेदार बन कर बैठ जाना पड़ता है भीतर और मन के दरवाजे से जो विचारों का आना-जाना होता है उसको देखते रहना पड़ता है। संत दरवाजे पर बैठे-बैठे ही समाधि को उपलब्ध हो जाएंगे।

तुम चिंता न करो संत! तुम्हारी चिंता मैं कर रहा हूं। तुम बेफिक्र रहो। परमात्मा का भी दर्शन होगा। परमात्मा कहीं छिपा थोड़े ही है; मौजूद ही है, सिर्फ हमारी आंखों पर थोड़ी सी धूल जमी है--विचारों की धूल, वह धूल झड़ जाएगी कि तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ने लगेगा। जो भी आएगा दरवाजे के भीतर और जो भी जाएगा, उसमें ही परमात्मा दिखाई पड़ेगा।

और द्वार पर बैठना तुम्हारे लिए इसलिए रखा है। और तुम उसका ठीक उपयोग कर रहे हो। क्योंकि वही ध्यान की प्रक्रिया है--साक्षी। मन है क्या? सतत विचारों का आवागमन। राह चलती ही रहती है, चलती ही रहती है विचार, वासनाएं, इच्छाएं, आकांक्षाएं, भाग-दौड़ मची हुई है, बाजार भरा हुआ है। तुम बैठे हो किनारे और देख रहे हो। तुम्हें कुछ करना नहीं है, सिर्फ देखना है--कौन गया, कौन आया; नजर रखनी है। कोई निर्णय भी नहीं लेना--कौन अच्छा, कौन बुरा। ऐसे बैठे-बैठे यह छोटा सा पहरेदारी का काम तुम्हें भीतर की पहरेदारी सिखा देगा।

यहां मैंने जो भी काम किसी को दिया है, उसके पीछे प्रयोजन है,खयाल रखना। तुम्हें शायद एक दफा समझ में आए या न आए, शायद तुम्हें बहुत बाद में समझ में आए कि क्या प्रयोजन था। जब प्रयोजन पूरा हो जाए तभी शायद समझ में आए। लेकिन यहां जिसे भी मैंने जो काम दिया है, उसका प्रयोजन है। यहां कोई भी काम ऐसा नहीं है जो साधना से जुड़ा न हो। जिसके लिए जो जरूरी है, वह उसी के लिए वैसी ही साधना में संयुक्त करा दिया है।

संत, परमात्मा भी मिलेगा। परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। उसके ऊपर थोड़े ही कोई पर्दा है। परमात्मा कोई मुसलमान औरत थोड़े ही है कि बुर्का ओढ़े बैठे हैं। अभी तुमने पाकिस्तान की खबरें पढ़ीं? मूढ़ता की भी हदें होती हैं! अब वहां स्त्रियों को मनाही कर दी गई है कि वे किसी भी खेल में पैंट-कमीज नहीं पहन सकती हैं। क्योंकि पैंट-कमीज पहनें तो उनकी नंगी टांगें लोगों को दिखाई पड़ जाएं! इतना ही नहीं, अब स्त्रियों के किसी खेल में पुरुष दर्शक नहीं हो सकते। स्त्रियां खेलें फुटबाल और खेलें टेनिस, मगर पुरुष दर्शक नहीं हो सकते, सिर्फ स्त्रियां ही दर्शक हो सकती हैं। वह तो बड़ी कृपा की कि उन्होंने...जरा एक कदम और आगे बढ़ते कि स्त्रियां खेलें हॉकी और बुर्का पहनें। तब आता पूरा मजा। तब होती धार्मिकता पूरी।

मूढ़ताओं की हद है! ये सब बातें किस बात का सबूत देती हैं? आदमी की पाशविकता का, आदमी की हैवानियत का। क्या ओछी बात! और स्त्रियां चुप हैं, कोई विरोध नहीं है। पहले तुम उन्हें मस्जिदों में नहीं जाने देते थे, चलो वह भी ठीक; अब तुम उन्हें खेल में भी मत जाने देना। और आज नहीं कल इसका आखिरी तार्किक परिणाम वही होने वाला है कि बुर्का ओढ़ो और हॉकी खेलो।

परमात्मा कोई मुसलमान स्त्री नहीं है कि बुर्का ओढ़े बैठे हुए हैं। परमात्मा तो प्रकट है--हर फूल में, हर पत्ते में, हर चांद, हर तारे में। सिर्फ हम अंधे हैं, या हमारी आंखें बंद हैं, या हमारी आंखों पर पर्दा पड़ा हुआ है। उसी पर्दे को हटाने का उपाय चल रहा है यहां।

संत, पर्दा हट रहा है। और जैसे-जैसे पर्दा हटेगा, वैसे-वैसे तुम्हारी आकांक्षा प्रगाढ़ होगी, वैसे-वैसे परमात्मा को पाने की प्यास गहन होगी। पीड़ा बढ़ेगी, विरह जगेगा। अब पा लूं, अब पा लूं--ऐसी त्वरा पैदा होगी। ये सब अच्छे लक्षण हैं। ये शुभ लक्षण हैं। ये, वसंत करीब आ रहा है, इसकी सूचनाएं हैं।

➡ *रहिमन धागा प्रेम का*

*💕ओशो💕👏👏👏👏👏*

।। एकाग्रता और ध्यान में क्या अंतर है? ।।

।। एकाग्रता और ध्यान में क्या अंतर है? ।।

मुझ से आकर लोग पूछते हैं: आकार का तो ध्यान हो सकता है, निराकार का ध्यान कैसे हो? ठीक है उनका प्रश्न, सम्यक है। राम का ध्यान कर सकते हो—धनुर्धारी राम! कृष्ण का ध्यान कर सकते हो—बांसुरी वाले कृष्ण। कि क्राइस्ट का ध्यान कर सकते हो—सूली पर चढ़े। कि बुद्ध का कि महावीर का। लेकिन निराकार का ध्यान! तुम्हें थोड़ी ध्यान की प्रक्रिया समझनी होगी।

जिसको तुम ध्यान कहते हो, वह ध्यान नहीं है, एकाग्रता है। एकाग्रता के लिए आकार जरूरी होता है। क्योंकि किसी पर एकाग्र होना होगा। कोई एक बिंदु चाहिए—राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर...। कोई प्रतिमा, कोई रूप, कोई आकार, कोई मंत्र, कोई शब्द, आधार, कोई आलंबन चाहिए—तो तुम एकाग्र हो सकते हो।

एकाग्रता ध्यान नहीं है। ध्यान तो एकाग्रता से बड़ी उल्टी बात है। हालांकि तुम्हारे ध्यान के संबंध में जो किताबें प्रचलित हैं, उन सब में यही कहा गया है कि ध्यान एकाग्रता का नाम है। गलत है वह बात। गैर-अनुभवियों ने लिखी होगी। एकाग्रता तो चित्त को संकीर्ण करती है। एकाग्रता तो एक बिंदु पर अपने को ठहराने का प्रयास है। एकाग्रता विज्ञान में उपयोगी है। ध्यान बड़ी और बात है। ध्यान का अर्थ होता है: शुद्ध जागरूकता। किसी चीज पर एकाग्र नहीं, सिर्फ जागे हुए—बस जागे हुए।

ऐसा समझो कि टार्च होती है। टार्च हो ध्यान नहीं है, एकाग्रता है। जब तुम टार्च जलाते हो तो प्रकाश एक जगह जाकर केंद्रित हो जाता है। लेकिन जब तुम दीया जलाते हो तो दीया जलाना ध्यान है। वह एक चीज पर जाकर एकाग्र नहीं होता; जो भी आसपास होता है सभी को प्रकाशित कर देता है। एकाग्रता में मगर तुम टार्च लेकर चल रहे हो तो एक चीज तो दिखाई पड़ती है, शेष सब अंधेरे में होता है। अगर दीया तुम्हारे हाथ में है तो सब प्रकाशित होता है। और ध्यान तो ऐसा दीया है कि उस में कोई तलहटी भी नहीं है कि दीया तले अंधेरा हो सके। ध्यान तो सिर्फ ज्योति ही ज्योति है, जागरण ही जागरण है—और बिना बाती बिन तेल! इसलिए दीया तले अंधेरा होने की भी संभावना नहीं है।

ध्यान शब्द तो तुम समझो साक्षी-भाव। जैसे मुझे तुम सुन रहे हो, दो ढंग से सुन सकते हो। जो नया-नया यहां आया है, वह एकाग्रता से सुनेगा। स्वभावतः, दूर से आया है, कष्ट उठाकर आया है। यात्रा है। कोई शब्द चूक जाए! तो सब तरफ से एकाग्र होकर सुनेगा। सब तरफ से चित्त को हटा लेगा। जो मैं कह रहा हूं, बस उसी पर टिक जाएगा।

लेकिन जो यहां थोड़ी देर रुके हैं, जो थोड़ी देर यहां रंगे हैं, जो थोड़ी देर यहां की मस्ती में डूबे हैं, वे एकाग्रता से नहीं सुन रहे हैं, ध्यान से सुन रहे हैं। भेद बड़ा है। एकाग्रता से सुनोगे, जल्दी थक जाओगे। तनाव होगा। एकाग्रता से सुनोगे तो यह पक्षियों का गीत सुनाई नहीं पड़ेगा। राह पर चलती हुई कारों की आवाज सुनाई नहीं पड़ेगी।

एकाग्रता से सुनोगे तो और सब तरफ से चित्त बंद हो जाएगा, संकीर्ण हो जाएगा। ध्यान से सुनोगे तो मैं जो बोल रहा हूं वह भी सुनोगे; ये जो चिड़ियां टीवी—टुट—टुट, टीवी—टुट—टुट कर रही हैं, यह भी सुनोगे। राह से कार की आवाज आएगी, वह भी सुनोगे; ट्रेन गुजरेगी, वह भी सुनोगे। बस सिर्फ सुनोगे! जो भी है, उसके साक्षी रहोगे। और तब तनाव नहीं होगा, तब थकान भी नहीं होगी। तब ताजगी बढ़ेगी। तब चित्त निश्चल होगा, निर्दोष होगा, क्योंकि चित्त विराम में होगा।

निराकार पर ध्यान नहीं करना होता है। जब तुम ध्यान में होते हो तो निराकार होता है। आकार पर ध्यान करना एकाग्रता; और ध्यान करना निराकार से जुड़ जाना है।

निराकार में पैठकर, निराधार लौ लाय।

सब आधार छूट जाते हैं वहां। निराधार हो जाता है व्यक्ति, निरालंब हो जाता है। बस मात्र होता है। शुद्ध होने की वह घड़ी है। बस, होने की वह घड़ी है। अपूर्व है। वहीं झरता है अमृत।

☆ अमी झरत बिगसत कंवल,

मन जड़-पदार्थ है

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                *मन जड़-पदार्थ है*

एक पुरानी कहानी है। एक अनपढ ग्रामीण, सम्राट के दर्शन के लिए,अपने घोड़े पर सवार हो राजधानी की तरफ चला। संयोग की बात, सम्राट भी उसी मार्ग से, शिकार करने के बाद राजधानी की तरफ वापिस लौटता था। उसके संगी-साथी कहीं पीछे जंगल में भटक गये थे। वह अपने घोड़े पर अकेला था। इस ग्रामीण का उस सम्राट से मिलना हो गया।

सम्राट ने पूछा, क्यों भाई चौधरी! राजधानी किसलिए जा रहे हो? तो उस ग्रामीण ने कहा कि सम्राट के दर्शन करने; बड़े दिन की लालसा है, आज सुविधा मिल गई। सम्राट ने कहा, तुम बड़े सौभाग्यशाली हो। सम्राट के दर्शन ऐसे तो आसान नहीं, लेकिन तुम्हें आज सहज ही हो जायेंगे। ग्रामीण ने कहा, जब बात ही उठ गई, तो एक बात और बता दें। दर्शन तो सहज हो जायेंगे, लेकिन मैं पहचानूंगा कैसे कि सम्राट यही है? यही मन में एक चिंता बनी है। सम्राट ने कहा, घबड़ाओ मत;जब हम राजधानी में पहुंचें और तुम देखो, किसी घोड़े पर सवार आदमी को, जिसे सभी लोग झुक-झुक कर नमस्कार कर रहे हैं, तो समझना कि यही सम्राट है।

फिर वे बहुत तरह की बातें, गपशप करते राजधानी पहुंच गये, द्वार के भीतर प्रविष्ट हुए; लोग झुक-झुक कर नमस्कार करने लगे। ग्रामीण बहुत चौंका। थोड़ी देर बाद उसने कहा कि भाई साहब, बड़ी दुविधा हो गई, या तो सम्राट आप हैं या मैं हूं।

उसकी दुविधा, मन की ही दुविधा है। मन इतने निकट है चेतना के कि भ्रांति हो जाती है कि या तो सम्राट आप हैं या मैं हूं। जब भी कोई झुक कर नमस्कार करता है तो मन समझता है, मुझे की जा रही है; इसी भ्रांति से अहंकार निर्मित होता है। जब भी कोई प्रेम करता है, मन समझता है मुझे किया जा रहा है। मन सिर्फ निकट है जीवन के। बहुत निकट है। इतना निकट है कि जीवन उसमें प्रतिबिंबित होता है और जीवित मालूम होता है मन।

मन पदार्थ का हिस्सा है। मन चेतना का हिस्सा नहीं है। मन शरीर का ही सूक्ष्मतम अंग है। मन शरीर का ही विकास है। लेकिन चेतना के बिलकुल निकट है। और इतना सूक्ष्म है मन, और चेतना के इतने निकट है कि यह भ्रांति बड़ी स्वाभाविक है हो जाना मन को, कि मैं ही सब कुछ हूं।

यह भ्रांति संसार में तो चलती ही है, साधना में भी पीछा नहीं छोड़ती। संसारी व्यक्ति तो मन को भरने में लगा रहता है, कभी भर नहीं पाता। क्योंकि भर पायेगा ही नहीं; वह मन का स्वभाव नहीं है। चेतना भर सकती है। भरी ही हुई है, वह उसका स्वभाव है। चेतना खिल सकती है, फूल बन सकती है। बनी ही हुई है, वह उसका स्वभाव है। मन तो जड़-पदार्थ है। यंत्रवत है। न खिल सकता, न भर सकता। लेकिन मन भरने की कोशिश में लगा है। जन्मों-जन्मों तक चेष्टा करने के बाद भी मन भरता नहीं; फिर भी आशा नहीं मरती।

➡ *दिया तले अँधेरा*