।। एकाग्रता और ध्यान में क्या अंतर है? ।।

।। एकाग्रता और ध्यान में क्या अंतर है? ।।

मुझ से आकर लोग पूछते हैं: आकार का तो ध्यान हो सकता है, निराकार का ध्यान कैसे हो? ठीक है उनका प्रश्न, सम्यक है। राम का ध्यान कर सकते हो—धनुर्धारी राम! कृष्ण का ध्यान कर सकते हो—बांसुरी वाले कृष्ण। कि क्राइस्ट का ध्यान कर सकते हो—सूली पर चढ़े। कि बुद्ध का कि महावीर का। लेकिन निराकार का ध्यान! तुम्हें थोड़ी ध्यान की प्रक्रिया समझनी होगी।

जिसको तुम ध्यान कहते हो, वह ध्यान नहीं है, एकाग्रता है। एकाग्रता के लिए आकार जरूरी होता है। क्योंकि किसी पर एकाग्र होना होगा। कोई एक बिंदु चाहिए—राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर...। कोई प्रतिमा, कोई रूप, कोई आकार, कोई मंत्र, कोई शब्द, आधार, कोई आलंबन चाहिए—तो तुम एकाग्र हो सकते हो।

एकाग्रता ध्यान नहीं है। ध्यान तो एकाग्रता से बड़ी उल्टी बात है। हालांकि तुम्हारे ध्यान के संबंध में जो किताबें प्रचलित हैं, उन सब में यही कहा गया है कि ध्यान एकाग्रता का नाम है। गलत है वह बात। गैर-अनुभवियों ने लिखी होगी। एकाग्रता तो चित्त को संकीर्ण करती है। एकाग्रता तो एक बिंदु पर अपने को ठहराने का प्रयास है। एकाग्रता विज्ञान में उपयोगी है। ध्यान बड़ी और बात है। ध्यान का अर्थ होता है: शुद्ध जागरूकता। किसी चीज पर एकाग्र नहीं, सिर्फ जागे हुए—बस जागे हुए।

ऐसा समझो कि टार्च होती है। टार्च हो ध्यान नहीं है, एकाग्रता है। जब तुम टार्च जलाते हो तो प्रकाश एक जगह जाकर केंद्रित हो जाता है। लेकिन जब तुम दीया जलाते हो तो दीया जलाना ध्यान है। वह एक चीज पर जाकर एकाग्र नहीं होता; जो भी आसपास होता है सभी को प्रकाशित कर देता है। एकाग्रता में मगर तुम टार्च लेकर चल रहे हो तो एक चीज तो दिखाई पड़ती है, शेष सब अंधेरे में होता है। अगर दीया तुम्हारे हाथ में है तो सब प्रकाशित होता है। और ध्यान तो ऐसा दीया है कि उस में कोई तलहटी भी नहीं है कि दीया तले अंधेरा हो सके। ध्यान तो सिर्फ ज्योति ही ज्योति है, जागरण ही जागरण है—और बिना बाती बिन तेल! इसलिए दीया तले अंधेरा होने की भी संभावना नहीं है।

ध्यान शब्द तो तुम समझो साक्षी-भाव। जैसे मुझे तुम सुन रहे हो, दो ढंग से सुन सकते हो। जो नया-नया यहां आया है, वह एकाग्रता से सुनेगा। स्वभावतः, दूर से आया है, कष्ट उठाकर आया है। यात्रा है। कोई शब्द चूक जाए! तो सब तरफ से एकाग्र होकर सुनेगा। सब तरफ से चित्त को हटा लेगा। जो मैं कह रहा हूं, बस उसी पर टिक जाएगा।

लेकिन जो यहां थोड़ी देर रुके हैं, जो थोड़ी देर यहां रंगे हैं, जो थोड़ी देर यहां की मस्ती में डूबे हैं, वे एकाग्रता से नहीं सुन रहे हैं, ध्यान से सुन रहे हैं। भेद बड़ा है। एकाग्रता से सुनोगे, जल्दी थक जाओगे। तनाव होगा। एकाग्रता से सुनोगे तो यह पक्षियों का गीत सुनाई नहीं पड़ेगा। राह पर चलती हुई कारों की आवाज सुनाई नहीं पड़ेगी।

एकाग्रता से सुनोगे तो और सब तरफ से चित्त बंद हो जाएगा, संकीर्ण हो जाएगा। ध्यान से सुनोगे तो मैं जो बोल रहा हूं वह भी सुनोगे; ये जो चिड़ियां टीवी—टुट—टुट, टीवी—टुट—टुट कर रही हैं, यह भी सुनोगे। राह से कार की आवाज आएगी, वह भी सुनोगे; ट्रेन गुजरेगी, वह भी सुनोगे। बस सिर्फ सुनोगे! जो भी है, उसके साक्षी रहोगे। और तब तनाव नहीं होगा, तब थकान भी नहीं होगी। तब ताजगी बढ़ेगी। तब चित्त निश्चल होगा, निर्दोष होगा, क्योंकि चित्त विराम में होगा।

निराकार पर ध्यान नहीं करना होता है। जब तुम ध्यान में होते हो तो निराकार होता है। आकार पर ध्यान करना एकाग्रता; और ध्यान करना निराकार से जुड़ जाना है।

निराकार में पैठकर, निराधार लौ लाय।

सब आधार छूट जाते हैं वहां। निराधार हो जाता है व्यक्ति, निरालंब हो जाता है। बस मात्र होता है। शुद्ध होने की वह घड़ी है। बस, होने की वह घड़ी है। अपूर्व है। वहीं झरता है अमृत।

☆ अमी झरत बिगसत कंवल,

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