एक प्राचीन रूसी कथा

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*💞परम प्यारे ओशो💞*
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*💫एक प्राचीन रूसी कथा है।💫*

एक बड़े टोकरे में बहुत से मुर्गे आपस में लड़ रहे थे। नीचे वाला खुली हवा में सांस लेने के लिए अपने ऊपर वाले को गिराकर ऊपर आने के लिए फड़फड़ाता है। सब भूख—प्यास से व्याकुल हैं। इतने में कसाई छुरी लेकर आ जाता है, एक—एक मुर्गे की गर्दन पकड़कर टोकरे से बाहर खींचकर वापस काटकर फेंकता जाता है। कटे हुए मुर्गों के शरीर से गर्म लहू की धार फूटती है। भीतर के अन्य जिंदा मुर्गे अपने— अपने पेट की आग बुझाने के लिए उस पर टूट पड़ते हैं। इनकी जिंदा चोंचों की छीना—झपटी में मरा कटा मुर्गे का सिर गेंद की तरह उछलता—लुढ़कता है। कसाई लगातार टोकरे के मुर्गे काटता जाता है। टोकरे के भीतर हिस्सा बांटने वालों की संख्या भी घटती जाती है। इस खुशी में बाकी बचे मुर्गों के बीच से एकाध की बांग भी सुनायी पड़ती है। अंत में टोकरा सारे कटे मुर्गों से भर जाता है। चारों ओर खामोशी है, कोई झगड़ा या शोर नहीं है।

इस रूसी कथा का नाम है—जीवन।

ऐसा जीवन है। सब यहां मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। प्रतिपल किसी की गर्दन कट जाती है। लेकिन जिनकी गर्दन अभी तक नहीं कटी है, वे संघर्ष में रत हैं, वे प्रतिस्पर्धा में जुटे हैं। जितने दिन, जितने क्षण उनके हाथ में हैं, इनका उन्हें उपयोग कर लेना है। इस उपयोग का एक ही अर्थ है कि किसी तरह अपने जीवन को सुरक्षित कर लेना है, जो कि सुरक्षित हो ही नहीं सकता।

मौत तो निश्चित है। मृत्यु तो आकर ही रहेगी। मृत्यु तो एक अर्थ में आ ही गयी है। क्यू में खड़े हैं हम। और प्रतिपल क्यू छोटा होता जाता है, हम करीब आते जाते हैं। मौत ने अपनी तलवार उठाकर ही रखी है, वह हमारी गर्दन पर ही लटक रही है, किसी भी क्षण गिर सकती है। लेकिन जब तक नहीं गिरी है, तब तक हम जीवन की आपाधापी में बड़े व्यस्त हैं—और बटोर लूं, और इकट्ठा कर लूं? और थोड़े बड़े पद पर पहुंच जाऊं, और थोड़ी प्रतिष्ठा हो जाए, और थोड़ा मान—मर्यादा मिल जाए। और अंत में सब मौत छीन लेगी।

जिन्हें मृत्यु का दर्शन हो गया, जिन्होंने ऐसा देख लिया कि मृत्यु सब छीन लेगी, उनके जीवन में संन्यास का पदार्पण होता है।

विज्ञान भैरव तंत्र

यदि ऊर्जा का रुपांतरण
कर लिया जाए! तो संभोग!
समाधि बन जाती है और
काम! ध्यान बन जाता है।
और तुम पूर्ण हो जाते हो।
आरंभ के साथ रहो,
अंत की फिक्र मत करो!
किन्तु आरंभ में कैसे रहा जाए?

इस संबंध में
बहुत सी बातें
ख्‍याल में लेने जैसी है।
पहली बात कि काम
कोई कृत्‍य नही है!
इसको भोग का
माध्‍यम मत बनाओ।
काम पवित्र है!
संभोग को
साधन की तरह मत लो,
वह आपने आप में साध्‍य है।
उसका कहीं लक्ष्‍य नहीं है,
वह साधन नहीं है।
और दूसरी बात कि
भूत या भविष्‍य की
चिंता मत लो,
वर्तमान में रहो!
अगर तुम
संभोग के आरंभ में
वर्तमान में नहीं रह सकते,
तब तुम कभी वर्तमान में
नहीं रह सकते।
क्‍योंकि
काम की प्रकृति ही
ऐसी है कि तुम वर्तमान में
फेंक दिए जाते हो।
बाकी सब विलीन हो जाता है!
तो वर्तमान में रहो!

दो शरीरों के मिलन का सुख लो,
दो आत्‍माओं के मिलने का आनंद लो!

और एक दूसरे में खो जाओ!
डूब जाओ!
एक हो जाओ!
भूल जाओ कि तुम अलग हो!
वर्तमान के क्षण में जियो,
जहाँ से कहीं जाना नहीं है!
एक दूसरे से मिलकर
एक हो जाओ!
उष्‍णता और प्रेम
वह स्‍थिति बनाते है
जिसमें दो व्‍यक्‍ति
एक दूसरे में
पिघलकर खो जाते है।

यही कारण है कि
यदि प्रेम न हो
तो संभोग
जल्‍दबाजी का
काम हो जाता है।
तब तुम दूसरे का
उपयोग कर रहे होते हो!
दूसरे में डूब नहीं रहे होते!
प्रेम के साथ तुम
दूसरे में डूब सकते हो।
आरंभ का यह एक दूसरे में
डूब जाना अनेक
अंतदृष्‍टियां प्रदान करता है।
अगर तुम संभोग को
समाप्‍त करने की
जल्‍दी नहीं करते हो तो
काम कृत्‍य
धीरे-धीरे कामुक कम,
आध्‍यात्‍मिक ज्‍यादा हो जाता है।
जननेंद्रियों भी एक दूसरे में
विलीन हो जाती है।
तब दो शरीरिक
ऊर्जाओं के बीच
एक गहन मौन-मिलन
घटित होता है;
और तब तुम घंटों साथ
डूबे रह सकते हो!
यह सहवास
समय के साथ-साथ
गहराता जाता है!
लेकिन सोच-विचार मत करो,
वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से
विलीन होकर रहो,
फिर संभोग!
समाधि बन जाती है।
और अगर तुम
इसे जान सके!
इसे अनुभव कर सके!
इसे उपलब्‍ध कर सके तो
तुम्‍हारा कामुक चित्त,
अकामुक हो जाएगा!
एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है।
काम से भी ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध हो सकता है।

यह वक्‍तव्‍य अभी
विरोधाभासी मालूम होगा!
काम से ब्रह्मचर्य
उपलब्‍ध हो सकता है?
क्‍योंकि हम सदा से
सुनते और सोचते आए है कि
अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है;
तो उसे विपरीत यौन के सदस्‍य को
नहीं देखना चाहिए।
उससे नहीं मिलना चाहिए।
उससे सर्वथा बचना चाहिए,
दूर रहना चाहिए!
लेकिन उस हालत में
एक गलत किस्‍म का
ब्रह्मचर्य घटित होता है कि
जब चित्त विपरीत यौन को
सोचने में संलग्‍न हो जाता है।
जितना ही तुम दूसरे से बचोगे
उतना ही ज्‍यादा उसके संबंध में
सोचने को विवश हो जाओगे।
क्‍योंकि काम मनुष्‍य की
गहरी आवश्‍यकता है।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्व-भाव है!
स्वभाव कहता है कि बचने की,
भागने की चेष्‍टा मत करो,
बचना संभव नहीं है!
अच्‍छा है कि प्रकृति को ही
उसके अतिक्रमण का
साधन बना लो।
लड़ों मत!
प्रकृति के अतिक्रमण के लिए
प्रकृति को स्वीकार करो।
अगर प्रेमिका और प्रेमी
इस मिलन में
अंत की फिक्र किए बिना
गहरे उतर सके!
तो तुम आरंभ में ही
बने रहे सकते हो;
ऊर्जा पूर्ण उत्तेजित होती है!
शिखर पर जाकर
तुम उसे खो सकते हो!
ऊर्जा के खोन से
गिरावट आती है,
कमजोरी पैदा होती है।
तुम उसे विश्राम समझ लेते हो!
लेकिन वह उर्जा का हास है।
तंत्र तुम्‍हें उच्‍चतर विश्राम का
आयाम प्रदान करता है।

प्रेमी और प्रेमिका
एक दूसरे में विलीन होकर
एक दूसरे को शक्‍ति प्रदान करते है।
तब वे एक वर्तुल बन जाते है।
और उनकी ऊर्जा
वर्तुल में घूमने लगती है।
वह दोनों एक दूसरे को
जीवन ऊर्जा दे रहे है।
नव जीवन दे रहे है।
इसमे ऊर्जा का ह्रास नहीं होता,
वरन उसकी वृद्धि होती है।
क्‍योंकि विपरीत
यौन के साथ
संपर्क के द्वारा
तुम्‍हारा प्रत्‍येक कोश
ऊर्जा से भर रहा होता है!
उसे चुनौती मिलती है।
यदि स्‍खलन न हो,
यदि ऊर्जा को
फेंका न जाए तो
संभोग ध्‍यान बन जाता है,
और तुम पूर्ण हो जाते हो।
इसके द्वारा तुम्‍हारा
विभाजित व्‍यक्‍तित्‍व
अविभाजित हो जाता है!
अखंड हो जाता है!
चित की रूग्‍णता इसी
विभाजन से पैदा होती है।
और जब तुम जुड़ते हो,
अखंड होते हो,
तो तुम फिर बच्‍चे हो जाते हो।
निर्दोष हो जाते हो,
और एक बार अगर तुम
इस निर्दोषता का उपलब्‍ध हो गए!
तो फिर तुम अपने
समाज में उसकी
जरूरत के अनुसार
जैसा चाहो वैसा
व्‍यवहार कर सकते हो।
लेकिन तब तुम्‍हारा
यह व्‍यवहार महज
अभिनय होगा,
तुम उससे ग्रस्‍त नहीं होगे,
तब यह एक जरूरत है,
जिसे तुम पूरा कर रहे हो,
तब तुम उसमे नहीं हो!
काम के आरंभ में
उसकी आरंभिक
अग्‍नि पर ध्यान मत दो!
जो हो रहा है होने दो!
सिर्फ बहो! डुबो!
और फिर धीरे धीरे काम!
ध्यान बन जायेगा;
और अगर
स्‍खलन होता है तो
ऊर्जा नष्‍ट होती है,
और तब अग्‍नि नहीं बचती;
तुम कुछ प्राप्‍त किए बिना ऊर्जा खो देते हो !!

विज्ञान भैरव तंत्र~

ओशो.....♡

आदमी मुर्दों को पूजता है।

आदमी मुर्दों को पूजता है।

लंका में एक मंदिर है, जहां बुद्ध का दात पूजा जा रहा है और वैज्ञानिकों ने खोज की है और वे कहते हैं यह बुद्ध का दांत ही नहीं है।

बुद्ध की तो बात छोड़ो, यह आदमी का ही दांत नहीं है। वह किसी जानवर का दांत है। मगर बौद्ध मानने को तैयार नहीं हैं। और उनको भी दिखायी पड़ता है कि इतना बड़ा दांत आदमी का होता ही नहीं।

इस ढंग का दाँत आदमी का नहीं होता। वैज्ञानिकों ने सब परीक्षण करके तय कर दिया है कि किस तरह के जानवर का दाँत है। मगर पूजा जारी है!

वे कहते हैं : सदा से चली आयी है; हम छोड़ कैसे सकते हैं! सदियां मूढ़ थीं? पच्चीस सौ साल से हम इसको पूजते हैं! किसी को पता नहीं चला, आपको पहली दफा पता चला! पूजा जारी रहेगी।

अस्थियां पूजी जाती हैं। राख पूंजी जाती है। लाशें पूंजी जाती हैं। और जीवंत का तिरस्कार होता है! आदमी बहुत अदभुत है।

जब बुद्ध जिंदा होते हैं, तब पत्थर मारे जाते हैं। और जब बुद्ध मर जाते हैं, तब पूजा होती है!

जब क्राइस्ट जिंदा थे, तो सूली लगायी। और जब अब मर गए हैं, तो कितने चर्च! लाखों चर्च! कितनी चर्चा! जितनी किताबें जीसस पर लिखी जाती हैं, किसी पर नहीं लिखी जातीं। और जितने पंडित—पुरोहित जीसस के पीछे हैं, उतने किसी के पीछे नहीं। और जितने मंदिर जीसस के लिए खड़े हैं, उतने मंदिर किसी के लिए नहीं हैं। आधी पृथ्वी ईसाई है!

और इस आदमी को सूली लगा दी थी। और इस आदमी को जब सूली लगी थी, तो लोग पत्थर फेंक रहे थे, सड़े गले छिलके फेंक रहे थे, लोग इसका अपमान कर रहे थे; हंस रहे थे। और जब यह आदमी सूली पर लटका हुआ प्यास से तड़फ रहा था और इसने पानी मांगा, तो किसी ने गंदे डबरे में एक चीथड़े को भिगोकर एक बांस पर लगाकर जीसस की तरफ कर दिया कि इसे चूस लो।

जीसस जिंदा थे, तो यह व्यवहार। जीसस को खुद अपनी सूली ढोनी पड़ी थी गोलगोथा के पहाड़ पर। गिर पड़े रास्ते में, क्योंकि सूली वजनी थी, बड़ी थी। घुटने टूट गए; लहूलुहान हो गए। और पीछे से कोड़े भी पड़ रहे है कि उठो और अपनी सूली ढोओ।

यह व्यवहार जीवित जीसस के साथ और अब पूजा चल रही है! और अब वही क्रास सभी मंदिरों में प्रतिष्ठित हो गया है। भजन कीर्तन हो रहे हैं!

और मैं तुमसे कहता हूं : जीसस अगर वापस आ जाएं, तो फिर सूली लगेगी।

आदमी वहीं का वहीं है। आदमी कहीं गया नहीं है।

आदमी मुर्दों को पूजता है।
क्यों? क्योंकि मुर्दों के द्वारा कोई क्रांति नहीं होती, तुम सुरक्षित रहते हो। जिंदा जीसस तुम्हारे जीवन को बदल डालेंगे। जिंदा जीसस से दोस्ती करोगे, प्रेम लगाओगे, तो बदलाहट होगी। मरे हुए जीसस से बदलाहट नहीं होती।

मरे हुए जीसस को तो तुम बदल दोगे। तुम्हें वे क्या बदलेंगे।
इसलिए आदमी अतीत के साथ अपने मोह को बांधकर रखता है। इसी मोह के कारण इतनी सड़न है, इतनी गंदगी है, धर्म के नाम पर इतना अनाचार है। धर्म के नाम पर इतना रक्तपात है, युद्ध, हिंसा।

धर्म के नाम पर जितने लोग मारे गए हैं, और किसी नाम पर नहीं मारे गए हैं। और धर्म प्रेम की बात करता है! और प्रार्थना की बात करता है। और परिणाम में हत्या होती है।

🐔🐔🐔🐔ओशो🐔🐔🐔🐔
🌔🌔🌔एस धम्मो सनंतनो🌔🌔🌔

मध्य की खोज

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           *मध्य की खोज*

बुद्धिमान सदा मध्य को खोज लेता है। निर्बुद्धि हमेशा अति पर चला जाता है। और एक अति से दूसरी अति पर जाना निर्बुद्धि के लिए सदा आसान है। अगर तुम कृपण हो, कंजूस हो, तो सारे धन को त्याग कर देना बहुत आसान है। यह बात कठिन लगेगी समझने में कि कृपण और कैसे त्याग करेगा? लेकिन कृपणता एक अति है। और मन एक अति से दूसरी अति पर सरलता से चला जाता है। जैसा घड़ी का पेंडुलम बायें से दायें चला जाता है, दायें से बायें चला आता है। बीच में कभी नहीं ठहरता। ठहर जाये तो पूरी घड़ी रुक जाये।

कृपण अक्सर त्यागी हो जाते हैं। और अगर वे त्यागी न भी हों तो त्यागियों का बड़ा सम्मान करते हैं। तुम कंजूसों को हमेशा त्यागियों के चरणों में सिर झुकाते पाओगे। एक अति दूसरी अति के सामने सिर झुकाती है। सिर झुकाने का मतलब भी यही है कि हम भी चाहेंगे कि ऐसे ही हो जायें। सिर हम वहीं झुकाते हैं जहां जैसे हम होना चाहते हैं। हिंसक लोग अक्सर अहिंसक आदमी की प्रशंसा करते हुए पाये जायेंगे…दूसरी अति!

यह जानकर तुम्हें हैरानी होगी कि भारत में अहिंसा का जो जीवन-दर्शन पैदा हुआ, वह क्षत्रिय घरों से आया, ब्राह्मण घर से नहीं। महावीर, बुद्ध, पार्श्वनाथ, जैनों के चौबीस तीर्थंकर सब क्षत्रिय हैं। वहां हिंसा घनी थी। वहां चौबीस घंटे तलवार हाथ में थी। वहां अहिंसा पैदा हुई। एक भी ब्राह्मण अहिंसक नहीं हुआ इस अर्थ में, जैसा महावीर और बुद्ध अहिंसक हैं।

अगर हिंसक खोजना हो बड़े से बड़ा हिंदू, भारतीय परंपरा में, तो परशुराम है। वह ब्राह्मण घर में पैदा हुआ और पृथ्वी को अनेक बार क्षत्रियों से समाप्त किया। हिंसक पैदा हुआ ब्राह्मण घर में। अहिंसक पैदा हुए हिंसक घरों में; कारण क्या है? समझ में आता है अगर ब्राह्मण घर में अहिंसक पैदा होते। सीधी बात थी, कि ब्राह्मण घर में अहिंसक पैदा होना ही चाहिए। लेकिन मन अति पर जाता है। एक अति से दूसरी अति पर जाता है।

तुम हमेशा पाओगे, समृद्ध समाज में उपवास का सम्मान होगा। जहां ज्यादा खाने की सुविधा है, वहां उपवास समादृत होगा। गरीब समाज में अगर धार्मिक दिन आ जाये, तो उत्सव मनाने का एक ही ढंग होगा–पकवान। अच्छे से अच्छा भोजन। अमीर घर में अगर धार्मिक दिन आये तो मनाने का एक ही ढंग होगा–उपवास। जैन उपवास करते हैं, क्योंकि इस देश में सबसे ज्यादा समृद्ध, सबसे ज्यादा धन उनके पास है। गरीब कैसे धार्मिक दिन को उपवास करे? उपवास तो वह साल भर ही करता है। तो जब धार्मिक दिन आता है तो उससे विपरीत कुछ करे; तो वह नये कपड़े पहनता है, अच्छे से अच्छा भोजन बनाता है। वह उसका धार्मिक उत्सव है।

आदमी कैसे धार्मिक उत्सव मनाता है यह अगर तुम्हें पता चल जाये तो तुम्हें उसकी आर्थिक स्थिति तत्काल पता चल जायेगी। अगर उपवास करके मनाता है तो ज्यादा खाने की स्थिति में है। अगर भोज करता है, मित्रों को निमंत्रित करता है, तो गरीब स्थिति है। क्योंकि धर्म हमारे संसार का विपरीत है। वह दूसरी अति है। उसे हम उल्टे हो जायें तो ही मना पाते हैं।

और ऐसा हमारे पूरे जीवन में है। अगर व्यभिचारी कभी भी बदलेगा तो एकदम ब्रह्मचारी हो जायेगा। और ब्रह्मचारी अगर कभी भी गिरेगा तो एकदम व्यभिचारी हो जायेगा। बीच में, सम पर रुक जाना अति कठिन है। और जीवन की बड़े से बड़ी कला यह है कि कैसे अति से बचा जाये। क्योंकि इधर कुआं है, उधर खाई है।

पर क्या कारण है कि आदमी अति में इतना रस लेता है? क्योंकि अति में अहंकार को तृप्ति है। या तो तुम्हारे पास दुनिया का सबसे ज्यादा धन हो तो अहंकार खड़ा होता है; या तुम सारे धन को लात मार कर निकल जाओ, दुनिया के सबसे बड़े त्यागी हो जाओ, तो अहंकार तृप्त होता है। मध्य में अहंकार को तृप्त होने की कोई जगह नहीं है। मध्य में अहंकार मर जाता है। जैसे घड़ी बंद होती है ऐसे अहंकार की टिक-टिक भी बंद हो जाती है। इसलिए कोई भी मध्य में रुकना नहीं चाहता। और समत्व सार है। सारा जीवन अगर समत्व पर खड़ा हो जाये, तो तुम *बुद्धिमान* हो गये।

# *दीया तले अँधेरा*

*🌹ओशो👏👏👏👏👏*

सरजीव तोडिला निरंजीव पूजिला


*💫सरजीव तोडिला निरंजीव पूजिला💫*

तुम देखते हो न, लोग फूल तोड़ लेते हैं, जिंदा फूल! अभी खिला था, अभी हवाओं में नाचता था। अभी आकाश में अपनी सुरभि बिखेरता था! अभी सूरज की किरणों से गुफ्तगू करता था। अभी कितना मस्त था, कितना मदमस्त था। तोड़ लिया। निकल पड़ते हैं सुबह से लोग फूल तोड़ने। तोड़ लिया, चले मंदिर में चढ़ाने।
जिंदा फूल को मार डाला, और चढ़ा दिया पत्थर पर! जो चढ़ा था परमात्मा को, उसे छीन लिया परमात्मा से और चढ़ा दिया पत्थर पर!

ठीक बात कहते हैं गोरख :
सरजीव तोडिला निरंजीव पूजिला।

      तुम हो कैसे पागल! अपने पत्थरों को लाकर फूलों पर चढ़ा देते तो ठीक था, मगर फूलों को तो मत तोड़ो। और लोग कहते हैं कि नहीं—नहीं फूलों को हम बहुत प्रेम करते हैं, इसलिए तोड़ते हैं।

      मैं जबलपुर बहुत वर्षों तक रहा। मैंने एक प्यारा बगीचा लगा रखा था। उसमें बहुत फूल खिलते थे। आने लगे सुबह से लोग फूल तोड़ने। तिलक, चंदन—वंदन लगाये हुए। राम—राम, राम—राम जपते हुए। तो मैंने कहा : फूल मत तोड़ना। उन्होंने कहा : लेकिन हम तो पूजा के लिए तोड़ रहे हैं। पूजा के लिए तोड़ने में तो सब हकदार हैं।

      मैंने कहा. और किसी काम के लिए तोड़ रहे हो तो दे भी सकता हूं मगर पूजा के लिए तो नहीं दूंगा।
उन्होंने कहा. आप बात कैसी करते हैं!

      मैंने कहा : कम—से—कम पूजा के लिए तो नहीं।
क्योंकि पूजा तो वे कर रहे हैं, उनकी पूजा में विध्‍न मत डालो। परमात्मा को वे चढ़े हैं। ही, तुम्हें —किसी स्त्री से प्रेम हो गया हो और एक फूल भेंट करना हो, भले ले जाओ। कम—से—कम जिंदा को तो चढाओगे।
नहीं—नहीं, उन्होंने कहा, हम तो भगवती जी के मंदिर में जाते हैं।
मैंने कहा : जिंदा भगवती को चढ़ाओ तो तोड़ सकते हो, मदिर—वदिर के लिए नहीं।

      तो मैंने एक तख्ती लगा छोड़ी थी कि सिर्फ पूजा के लिए छोड्कर और किसी भी काम के लिए तोड़ना हो तो तोड़ लेना। मगर पूजा की बात बर्दाश्त नहीं की जा सकती। इस बगीचे में भी फूल खिलते हैं, वे अपना खिलकर वहीं मुर्झा जाते हैं। वहीं से चढ़े हैं परमात्मा को। उनको तोड़ना क्या है।

     *

सरलता

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             *सरलता*

मनुष्य की सभ्यता जितनी विकसित हुई है, मनुष्य उतना ही जटिल,कठोर और कठिन होता गया है। सिम्पलीसिटी, सरलता जैसी कोई भी चीज उसके भीतर नहीं रह गयी है। उसका मन अत्यंत कठोर और धीरे— धीरे पत्थर की भांति, पाषाण की भांति सख्त होता गया है। और जितना हृदय पत्थर की भांति कठोर हो जायेगा, उतनी ही कठिन है बात; उतना ही जीवन में कुछ जानना कठिन है, मुश्किल है। 

सरल मन चाहिए। कैसे होगा सरल मन? सरल मन की जो पहली ईंट है, जो पहले आधार है, जो पहली बुनियाद है, वह कहां से रखनी होगी? आमतौर से तो जीवन में हम जैसे—जैसे उस बड़ी होती है, कठोर ही होते चले जाते हैं। और यही तो वजह  है... तुमने सुना होगा बूढ़े को भी यह कहते हुए कि बचपन के दिन बहुत सुखद थे। बचपन बहुत आनंद से भरा था। बचपन बहुत आनंदपूर्ण था। तुम्हें भी लगता होगा। अभी यों तो तुम्हारी उस ज्यादा नहीं है, लेकिन तुम्हें भी लगता होगा कि जो दिन बीत गये बचपन के, वे बहुत आनंदपूर्ण थे। और धीरे— धीरे उतना आनंद नहीं है। क्यों? यह तुमने सुना तो होगा, लेकिन विचार नहीं किया होगा कि बचपन के दिन इतने आनंदपूर्ण क्यों होते हैं?  

बचपन के दिन इसलिए आनंदपूर्ण हैं कि बचपन के दिन सरलता के दिन हैं। हृदय होता है सरल, इसलिए चारों तरफ आनंद का अनुभव होता है। फिर जैसे जैसे उस बढ़ती है, हृदय होने लगता है कठिन और कठोर। फिर आनंद क्षीण होने लगता है। दुनिया तो वही है: बूढ़ों के लिए भी वही है, बच्चों के लिए भी वही है। लेकिन बच्चों के लिए चारों तरफ आनंद की वर्षा मालूम होती है। मौज ही मौज मालूम होती है। सौंदर्य ही सौंदर्य मालूम होता है। छोटी छोटी चीज में अदभुत दर्शन होते हैं। छोटे छोटे कंकड़ पत्थर को भी बच्चा बीन लेता है और हीरे जवाहरातों की तरह आनंदित होता है। क्या कारण है? कारण है, भीतर हृदय सरल है जहां हृदय सरल है, वहां कंकड़ पत्थर भी हीरे मोती हो जाते हैं। और जहां हृदय कठोर है, वहां हीरे मोती के ढेर लगे रहें, तो कंकड़ पत्थरों से ज्यादा नहीं होते। 

जहां हृदय सरल है, वहां छोटे से फूल में अपूर्व सौंदर्य के दर्शन होते हैं। जहां हृदय कठिन है, वहां फूलों का ढेर भी लगा रहे, तो उनका कहीं भी दर्शन नहीं होता। जहां हृदय सरल है; छोटे से झरने के किनारे भी बैठकर अदभुत सौंदर्य का बोध होता है। और जहां हृदय कठिन है, वहां कोई कश्मीर जाये, या स्विटजरलैंड जाये, या और सौंदर्य के स्थानों पर जाये, तो वहां भी उसे कोई सौंदर्य का बोध नहीं होता है। वहां भी उसे कोई आनंद की अनुभूति नहीं होती। 

लेकिन के लोग यह तो कहते हैं कि बचपन के दिन सुखद थे, लेकिन यह विचार नहीं करते कि क्यों सुखद थे? अगर इस बात पर विचार करें, तो पता चलेगा, हृदय सरल था, इसलिए जीवन में सुख था। तो अगर बुढ़ापे  में भी हृदय सरल हो, तो जीवन में बचपन से भी ज्यादा सुख होगा। होना भी यही चाहिए। यह तो बडी उल्टी बात है कि बचपन के दिन सुखद हों और वह सुख धीरे धीरे कम होता जाये, यह तो उल्टी बात हुई। जीवन में सुख का विकास होना चाहिए। जितना सुख बचपन में था, बुढ़ापे  में उससे हजार गुना ज्यादा होना चाहिए, क्योंकि इतना जीवन का अनुभव, इतना विकास, इतनी समझ का बढ़ जाना, सुख का भी बढ़ ना होना चाहिए।

लेकिन होती बात उल्टी है। बूढा आदमी दुखी होता है। और बच्चा सुखी होता है। इसका अर्थ है कि जीवन की गति हमारी कुछ गलत है। हम जीवन को ठीक से व्यवस्था नहीं देते। अन्यथा वृद्ध व्यक्ति को जितना आनंद होगा, उतना बच्चे को क्या हो सकता है? यह तो पतन हुआ। बचपन में सुख हुआ और बुढ़ापे में दुख हुआ, यह तो पतन हुआ। हमारा जीवन नीचे गिरता गया; बजाय बढ़ने के, जीवन नीचे गिरा! बजाय ऊंचा होने के, हम पीछे गए। यह तो उल्टी बात है। अगर ठीक ठीक मनुष्य का विकास हो, तो बुढ़ापे  के अंतिम दिन सर्वाधिक आनंद के दिन होंगे होने चाहिए। और अगर न हों, तो जानना चाहिए कि हम गलत ढंग से जीये। हमारा जीवन गलत ढंग का हुआ।

अगर किसी स्कूल में ऐसा हो कि पहली कक्षा में जो विद्यार्थी आयें, वे तो ज्यादा समझदार हों और वे कालेज छोड्कर निकलें, तो कम समझदार हो जायें! तो उस कालेज को हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, यह तो पागलखाना है! होना तो यह चाहिए कि पहली कक्षा में जो विद्यार्थी आयें, बच्चे आयें, तो समझ बहुत कम हो। जब वे कालेज को छोडे, स्कूल को छोडे, तो उनकी समझ और बढ़ जानी चाहिए। जीवन में जो बच्चे आते हैं, वे ज्यादा सुखी मालूम होते हैं और जो के जीवन को छोडते हैं, वे ज्यादा दुखी हो जाते हैं। तो यह तो बहुत उल्टी बात हो गयी। इस उल्टी बात में हमारे हाथ में गलती होगी, कुछ कसूर होगा। 

सबसे बडा कसूर है, सरलता को हम खो देते हैं, कमाते नहीं। सरलता कमानी चाहिए, सरलता बढ़नी चाहिए, गहरी होनी चाहिए, विस्तीर्ण होनी चाहिए। जितना हृदय सरल होता चला जायेगा, उतना ही ज्यादा जीवन में—इसी जीवन में, सुख की संभावना बढ़ जायेगी। कैसे चित्त सरल होगा, मन कैसे सरल होगा, और कैसे कठिन हो जाता है—इन दो बातों पर विचार करना जरूरी है।

# *चल हंसा उस देश*

*🌹ओशो👏👏👏👏👏*