पतिव्रता पति को ब्रत जानै

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*पतिव्रता पति को ब्रत जानै।*

जिसने किसी को प्रेम किया है। और जिसने किसी को ऐसी गहनता से प्रेम किया है उसके प्रेमी के अतिरिक्त उसे संसार में कोई और बचा ही नहीं है; जिसने सारा प्रेम किसी एक के ही ऊपर निछावर कर दिया है; जिसके प्रेम में इतनी आत्मीयता है, इतना समर्पण है कि अब इस प्रेम के बदलने का कोई उपाय नहीं है—ऐसी शाश्वत है कि अब कुछ भी हो जाए, जीवन रहे कि जाए, मगर प्रेम थिर रहेगा। जीवन तो एक दिन जाएगा, लेकिन प्रेम नहीं जाएगा। जीवन तो एक दिन चिता पर चढ़ेगा, लेकिन प्रेम का फिर कोई अंत नहीं है। जिसने किसी एक को, इतनी अनन्यता से चाहा है, इतनी परिपूर्णता से चाहा है, वही जान सकता है प्रेम की, प्रीति की पीड़ा।

*बिभचारिन मिल कहा बखानै !*

लेकिन जिसने कभी किसी से आत्मीयता नहीं जानी, किसी से प्रेम नहीं जाना; जो क्षणभंगुर में ही जीया है...।
वेश्या से पूछने जाओगे पतिव्रता के हृदय का राज, तो कैसे बताएगी? वह उसका अनुभव नहीं है। पतिव्रता का राज तो पतिव्रता से पूछना होगा। और फिर भी पतिव्रता बता न सकेगी। क्या बताएगी? गूंगे का गुड़! बोलो तो बोल न सको। हां, पतिव्रता के पास रहोगे तो शायद थोड़ी—थोड़ी झलक मिलनी शुरू हो। उसका अनन्य प्रेम—भाव देखो तो शायद झलक मिलनी शुरू हो। उसका समग्र समर्पण देखो तो शायद झलक मिलनी शुरू हो।

*हीरा पारख जौहरि पावै।*
*मूरख निरख के कहा बतावै।*

हीरा हो तो पारखी जान सकेगा। मूरख देख भी लेगा तो भी क्या बताएगा? यह वचन प्यारा है।
मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा को तुमने भी देखा है, मगर पहचान नहीं पाए। ऐसा कैसे हो सकता है कि परमात्मा को न देखा हो! ऐसा तो हो ही नहीं सकता। हीरा न देखा हो, यह हो सकता है। लेकिन परमात्मा न देखा हो, यह नहीं हो सकता। क्योंकि हीरे तो कभी कहीं मुश्किल से मिलते हैं। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है। वृक्षों के पत्ते—पत्ते में उसके हस्ताक्षर हैं। कंकड़—कंकड़ पर उसकी छाप। पत्थर—पत्थर में उसकी प्रतिमा। पक्षी—पक्षी में उसके गीत। हवाएं जब वृक्षों से गुजरती हैं, तो उसकी भगवदगीता। और आकाश में जब बादल घिर आते हैं और गड़गड़ाने लगते हैं, तो उसका कुरान। और झरनों में जब कल—कल नाद होता है, तो उसके वेद! तुम बचोगे कैसे? और जब सूरज निकलता है तो वही निकलता है। और जब रात चांद की चांदनी बरसने लगती है, तो वही बरसता है। मोर के नाच में भी वही है। कोयल की कुहू—कुहू में भी वही है। मेरे बोलने में वही है, तुम्हारे सुनने में वही है। उसके अतिरिक्त तो कोई और है ही नहीं।
ऐसा तो कभी पूछना ही मत कि परमात्मा कहां है। ऐसा ही पूछना कि परमात्मा कहां नहीं है। तो यह तो हो ही कैसे सकता कि तुमने परमात्मा को न देखा हो? रोज—रोज देखा है। हर घड़ी देखा है। हर घड़ी उसी से तो मुठभेड़ हो जाती है!

*अमी झरत विगसत कंवल/9-*

*🌹ओशो 👏👏👏👏👏*

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