यदि ऊर्जा का रुपांतरण
कर लिया जाए! तो संभोग!
समाधि बन जाती है और
काम! ध्यान बन जाता है।
और तुम पूर्ण हो जाते हो।
आरंभ के साथ रहो,
अंत की फिक्र मत करो!
किन्तु आरंभ में कैसे रहा जाए?
इस संबंध में
बहुत सी बातें
ख्याल में लेने जैसी है।
पहली बात कि काम
कोई कृत्य नही है!
इसको भोग का
माध्यम मत बनाओ।
काम पवित्र है!
संभोग को
साधन की तरह मत लो,
वह आपने आप में साध्य है।
उसका कहीं लक्ष्य नहीं है,
वह साधन नहीं है।
और दूसरी बात कि
भूत या भविष्य की
चिंता मत लो,
वर्तमान में रहो!
अगर तुम
संभोग के आरंभ में
वर्तमान में नहीं रह सकते,
तब तुम कभी वर्तमान में
नहीं रह सकते।
क्योंकि
काम की प्रकृति ही
ऐसी है कि तुम वर्तमान में
फेंक दिए जाते हो।
बाकी सब विलीन हो जाता है!
तो वर्तमान में रहो!
दो शरीरों के मिलन का सुख लो,
दो आत्माओं के मिलने का आनंद लो!
और एक दूसरे में खो जाओ!
डूब जाओ!
एक हो जाओ!
भूल जाओ कि तुम अलग हो!
वर्तमान के क्षण में जियो,
जहाँ से कहीं जाना नहीं है!
एक दूसरे से मिलकर
एक हो जाओ!
उष्णता और प्रेम
वह स्थिति बनाते है
जिसमें दो व्यक्ति
एक दूसरे में
पिघलकर खो जाते है।
यही कारण है कि
यदि प्रेम न हो
तो संभोग
जल्दबाजी का
काम हो जाता है।
तब तुम दूसरे का
उपयोग कर रहे होते हो!
दूसरे में डूब नहीं रहे होते!
प्रेम के साथ तुम
दूसरे में डूब सकते हो।
आरंभ का यह एक दूसरे में
डूब जाना अनेक
अंतदृष्टियां प्रदान करता है।
अगर तुम संभोग को
समाप्त करने की
जल्दी नहीं करते हो तो
काम कृत्य
धीरे-धीरे कामुक कम,
आध्यात्मिक ज्यादा हो जाता है।
जननेंद्रियों भी एक दूसरे में
विलीन हो जाती है।
तब दो शरीरिक
ऊर्जाओं के बीच
एक गहन मौन-मिलन
घटित होता है;
और तब तुम घंटों साथ
डूबे रह सकते हो!
यह सहवास
समय के साथ-साथ
गहराता जाता है!
लेकिन सोच-विचार मत करो,
वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से
विलीन होकर रहो,
फिर संभोग!
समाधि बन जाती है।
और अगर तुम
इसे जान सके!
इसे अनुभव कर सके!
इसे उपलब्ध कर सके तो
तुम्हारा कामुक चित्त,
अकामुक हो जाएगा!
एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है।
काम से भी ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है।
यह वक्तव्य अभी
विरोधाभासी मालूम होगा!
काम से ब्रह्मचर्य
उपलब्ध हो सकता है?
क्योंकि हम सदा से
सुनते और सोचते आए है कि
अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है;
तो उसे विपरीत यौन के सदस्य को
नहीं देखना चाहिए।
उससे नहीं मिलना चाहिए।
उससे सर्वथा बचना चाहिए,
दूर रहना चाहिए!
लेकिन उस हालत में
एक गलत किस्म का
ब्रह्मचर्य घटित होता है कि
जब चित्त विपरीत यौन को
सोचने में संलग्न हो जाता है।
जितना ही तुम दूसरे से बचोगे
उतना ही ज्यादा उसके संबंध में
सोचने को विवश हो जाओगे।
क्योंकि काम मनुष्य की
गहरी आवश्यकता है।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्व-भाव है!
स्वभाव कहता है कि बचने की,
भागने की चेष्टा मत करो,
बचना संभव नहीं है!
अच्छा है कि प्रकृति को ही
उसके अतिक्रमण का
साधन बना लो।
लड़ों मत!
प्रकृति के अतिक्रमण के लिए
प्रकृति को स्वीकार करो।
अगर प्रेमिका और प्रेमी
इस मिलन में
अंत की फिक्र किए बिना
गहरे उतर सके!
तो तुम आरंभ में ही
बने रहे सकते हो;
ऊर्जा पूर्ण उत्तेजित होती है!
शिखर पर जाकर
तुम उसे खो सकते हो!
ऊर्जा के खोन से
गिरावट आती है,
कमजोरी पैदा होती है।
तुम उसे विश्राम समझ लेते हो!
लेकिन वह उर्जा का हास है।
तंत्र तुम्हें उच्चतर विश्राम का
आयाम प्रदान करता है।
प्रेमी और प्रेमिका
एक दूसरे में विलीन होकर
एक दूसरे को शक्ति प्रदान करते है।
तब वे एक वर्तुल बन जाते है।
और उनकी ऊर्जा
वर्तुल में घूमने लगती है।
वह दोनों एक दूसरे को
जीवन ऊर्जा दे रहे है।
नव जीवन दे रहे है।
इसमे ऊर्जा का ह्रास नहीं होता,
वरन उसकी वृद्धि होती है।
क्योंकि विपरीत
यौन के साथ
संपर्क के द्वारा
तुम्हारा प्रत्येक कोश
ऊर्जा से भर रहा होता है!
उसे चुनौती मिलती है।
यदि स्खलन न हो,
यदि ऊर्जा को
फेंका न जाए तो
संभोग ध्यान बन जाता है,
और तुम पूर्ण हो जाते हो।
इसके द्वारा तुम्हारा
विभाजित व्यक्तित्व
अविभाजित हो जाता है!
अखंड हो जाता है!
चित की रूग्णता इसी
विभाजन से पैदा होती है।
और जब तुम जुड़ते हो,
अखंड होते हो,
तो तुम फिर बच्चे हो जाते हो।
निर्दोष हो जाते हो,
और एक बार अगर तुम
इस निर्दोषता का उपलब्ध हो गए!
तो फिर तुम अपने
समाज में उसकी
जरूरत के अनुसार
जैसा चाहो वैसा
व्यवहार कर सकते हो।
लेकिन तब तुम्हारा
यह व्यवहार महज
अभिनय होगा,
तुम उससे ग्रस्त नहीं होगे,
तब यह एक जरूरत है,
जिसे तुम पूरा कर रहे हो,
तब तुम उसमे नहीं हो!
काम के आरंभ में
उसकी आरंभिक
अग्नि पर ध्यान मत दो!
जो हो रहा है होने दो!
सिर्फ बहो! डुबो!
और फिर धीरे धीरे काम!
ध्यान बन जायेगा;
और अगर
स्खलन होता है तो
ऊर्जा नष्ट होती है,
और तब अग्नि नहीं बचती;
तुम कुछ प्राप्त किए बिना ऊर्जा खो देते हो !!
विज्ञान भैरव तंत्र~
ओशो.....♡
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