कहे कबीर दीवाना,

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*श्री अरविंद* ने लिखा है, कि जिस व्यक्ति से उन्होंने ध्यान सीखा, उसने एक छोटी सी बात उन्हें समझाई थी। कहा था, कि तुम ध्यान करने बैठ जाओ, शांत हो जाओ, निर्विचार हो जाओ। तो अरविंद ने कहा, लेकिन निर्विचार हो जाओ, यह क्या कहने से हो सकता है? हम बैठ जाएंगे; बैठना हो सकता है, निर्विचार कैसे होंगे? विचार तो चलते ही रहेंगे।

तो उस व्यक्ति ने कहा, तुम ऐसा समझना कि जैसे तुम शांत बैठे हो और मक्खियां तुम्हारे चारों तरफ घूम रही हैं। विचार मक्खियों की तरह हैं। तुम उनको घूमने देना। तुम उनकी फिक्र न लेना। मक्खियों से क्या लेना-देना है? घूमने दो। तुम शांत रहना, विचारों को घूमने देना। कोलाहल चलता रहेगा तुम्हारे चारों तरफ, लेकिन तुम डांवाडोल मत होना।

श्री अरविंद तीन दिन तक बैठे रहे वैसी अवस्था में। रस लग गया। जिसको कबीर कहते हैं, तारी लग गई। तीन दिन तक उठे ही नहीं, सोए भी नहीं, भोजन भी नहीं किया। ऐसा रस भीतर आने लगा, कि उठने का मन ही न रहा। यह असली उपवास है। खयाल ही न आया भूख का, प्यास का, नींद का। ऐसा मजा आने लगा, ऐसा भीतर अमृत झरने लगा।

और धीरे-धीरे मक्खियां दूर होने लगीं। अब भी थीं, मगर बड़े फासले पर। मीलों लंबा फासला था। फासला बड़ा होता चला गया; जैसे चांदत्तारों के पास अब मक्खियां गूंज रही थीं, और तुम इतने दूर थे, क्या लेना-देना? विचार के साथ तादात्म्य तोड़ लो, बस! तुम उनसे अलग हो, तुम उनसे भिन्न हो। तुम विचार नहीं हो, तुम विचार के द्रष्टा और साक्षी हो; बस, इस साक्षीभाव से मेरे पास रह जाओ।

# *कहे कबीर दीवाना, प्र-14*

*🌹ओशो 👏👏👏👏👏*

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