जिससे स्वार्थ ही न सधा


*💫जिससे स्वार्थ ही न सधा!*
*उससे परार्थ कैसे सधेगा? स्वार्थ शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत  हाथों में पड़ गया है।💫*

स्वार्थ का अर्थ होता है! आत्मार्थ; अपना सुख, स्व का अर्थ; तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है। और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा!
जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा? जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा? इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूँ; अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। अगर तुम इसको स्वार्थ कहते हो? तो चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं। और जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।

कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चों को दे सको, उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हर आदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है, और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वाद तुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे दे सकोगे? असंभव है। मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, मजहब मतलब की बात है। इससे बड़ा कोई मतलब नहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिन बड़ी अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थ की ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ा होता है। तुम जब धीरे-धीरे अपने जीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पाने लगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवन दूसरों के लिए उपदेश हो जाता है। तुम्हारे जीवन से दूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने बच्चों को वही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी। तुम फिर प्रतिस्पर्धा न सिखाओगे, प्रतियोगिता न सिखाओगे, संघर्ष-वैमनस्य न सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर न डालोगे। इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ा परार्थ हो जाए।
अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदि करना निपट स्वार्थ नहीं है?' निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहीं भी कुछ बुरा नहीं है। अभी तक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भी नहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थ है; पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है; बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थ है। मैं तुमसे कहता हूं इसमें स्वार्थ कुछ भी नहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिल जाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा, अगर पागल हुए तो सब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो, मगर स्वार्थ हल नहीं होगा। क्योंकि सुख न मिलेगा। और स्वयं का मिलन भी नहीं होगा। और न जीवन में कोई अर्थवत्ता आएगी।

तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोई वर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुर नहीं फूटे, कभी कोई हरियाली नहीं और कभी कोई फूल नहीं आए। तुम्हारी वीणा ऐसी ही पड़ी रह जाएगी, जिसमें कभी किसी ने तार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व! तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है, सिर्फ मूढ़ता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो कि कैसे मैं करूं? मैं तुमसे कहता हूं, उसमें स्वार्थ है और परम समझदारी का कदम भी है। तुम यह स्वार्थ करो। इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूत नियम मान लो कि अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तो अपने से शुरू कर दो, तुम भले हो जाओ।

फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तो उससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उन लोगों के लिए दंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषण है, दुख है और अन्याय है।' क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो? क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों से भी तो पूछो कभी ! वे भी यही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौन है दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो? किसको दंड दिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे को नहीं सताया है? तुम दूसरे की छाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिक नहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहीं दबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रा में भले भेद हों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया बहुत छोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है। तुम जी न सकोगे। तुम अपने से नीचे के आदमी को उसी तरह सता रहे हो जिस तरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें सता रहा है। यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुम एकदम बाहर नहीं हो।
दंड किसके लिए मांगोगे? और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख ही देगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी ही देखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगा तो भी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देने का उपाय ही! तुम अपनी शांति तक छोड़ने को तैयार हो! लेकिन स्वार्थी नही बनोगे !!

        
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आपने मुझे नाम दिया है: योगानंद। इसका रहस्य समझाएं।

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*💫आपने मुझे नाम दिया है: योगानंद। इसका रहस्य समझाएं।💫*

योगानंद,

रहस्य कुछ भी नहीं है। जब तुम्हें देखा, तुम ऐसे अकड़ कर बैठे थे, तो मुझे लगा कि योगी मालूम होते हो। बिलकुल एकदम आसन मार कर बैठ गए। और तुम्हारी नाक पर बड़ा अहंकार। और ढंग तुम्हारा ऐसा जैसा कोई बहुत महान कार्य कर रहे हो! संन्यास क्या ले रहे हो, संसार का बड़ा उपकार कर रहे हो, उद्धार कर रहे हो। सो मैंने तुम्हें नाम दे दिया--योगानंद। अब तुम न पूछते तो मैं कभी बताता भी नहीं, क्योंकि ये बातें बताने की नहीं। ये तो मैं अपने भीतर छिपा कर रखता हूं। अब तुमने खुद ही अपने हाथ से झंझट करवा ली।

नामों में क्या रखा है योगानंद? कुछ न कुछ लेबल चाहिए। मगर कुछ लोग हर चीज में राज खोजने में लगे रहते हैं। जैसे किसी चीज को साधारणतया स्वीकार कर ही नहीं सकते, राज होना ही होना चाहिए! चीजें बस हैं।

पिकासो से एक आलोचक ने कहा कि तुम्हारे चित्र का अर्थ क्या है? पिकासो ने कहा, अर्थ! यह खिड़की के बाहर झांक कर देखो, गुलाब का फूल खिला है, इसका क्या अर्थ है? और अगर गुलाब का फूल खिल सकता है मस्ती से, बिना अर्थ में, तो मेरी पेंटिंग में भी अर्थ होने की क्या जरूरत है? कोई मैंने ठेका लिया है अर्थ का? यह भी मौज है, वह भी मौज है।

मगर मैं नहीं सोचता कि आलोचक इससे राजी हुआ हो। आलोचक को तो अर्थ चाहिए ही। वह तो हर चीज में अर्थ होना ही चाहिए, अर्थ न हो तो बस उसकी सब नौका डगमगा जाती है।

तुम अनाम पैदा हुए हो, अनाम ही जाओगे, अनाम ही तुम हो। मगर काम चलाने के लिए नाम रखना पड़ा। नहीं तो यहां तीन हजार संन्यासी हैं, अब तुम्हें बुलाना हो तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाए। या तो तुम्हारा वर्णन करना पड़े विस्तार से, कि ऐसी नाक, ऐसे कान, ऐसे बाल और उसमें बड़ी झंझटें हो जाएं।

ऐसा मैंने सुना है कि एक दफा एक आदमी पिकासो के घर चोरी कर गया। पूछा पिकासो से पुलिस वालों ने कि कुछ उस आदमी की हुलिया बताओ। पिकासो ने कहा, अब हुलिया क्या बताऊं? एक चित्र बना देता हूं उसकी हुलिया का। पेंटर था, उसने चित्र बना दिया। कहते हैं, पुलिस ने पकड़े, सात आदमी पकड़े--एक लेटर बाक्स पकड़ा, एक रेफ्रिजरेटर पकड़ा! क्योंकि वह जो उसने चित्र बनाया था, उससे ये सब तो निकलीं। पिकासो के पास जब यह पूरी कतार ले कर वे आए तो पिकासो ने सिर ठोंक लिया, उसने कहा, हद हो गई! और पिकासो ने कहा कि क्षमा करो, किसी की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जो चीज मैं सोचता था चोरी गई है, वह चोरी गई ही नहीं है। वह चोर आया जरूर था, मगर ले जा कुछ भी नहीं सका, इसलिए फिक्र छोड़ो।

उन्होंने कहा, अब कैसे छोड़ सकते हैं? इन सातों ने तो स्वीकार भी कर लिया है! अब पुलिस स्वीकार किसी से भी करवा ले। मारो डंडे! जिसने चोरी नहीं की वह भी कहता है कि हां की है। वही ज्यादा सार है कि हां की है।

अब योगानंद को अगर मुझे खोजना हो तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। अब कहो कि लाल रंग के कपड़े पहने हुए हैं, कोई लेटर बाक्स निकाल कर ले आए। लेटर बाक्स तो पुराने संन्यासी हैं। कोई मील का पत्थर उखाड़ लाए; वे भी पुते खड़े हैं बिलकुल संन्यासी रंग में। कौन-कौन सी झंझटें हो जाएं, क्या कहा जा सकता है! इसलिए नाम की जरूरत है, वैसे नामों में क्या रखा है!

योगानंद, कोई राज वगैरह नहीं है। योग से तुम्हारा क्या नाता? न आनंद से कोई संबंध। बस एक लेबल चिपका दिया। कामचलाऊ हैं सब नाम।

लेकिन हर चीज में रहस्य खोजन की आदत गलत आदत है। जीवन को सरलता से स्वीकार करो, जैसा है वैसा स्वीकार करो। हर चीज में रहस्य खोजने के कारण न मालूम कितने मूरख तुम्हारा शोषण करते हैं, क्योंकि वे तुम्हें रहस्य में रहस्य बताते रहते हैं। चले हाथ की रेखाएं बताने, कोई बुद्धू मिल जाएगा लूटने। हाथ की रेखाओं में कोई रहस्य होना ही चाहिए! तुम पांव की रेखाएं क्यों नहीं बतलाते? उनमें भी कुछ रहस्य होना चाहिए। और कौन सी रेखा में कौन सा रहस्य है?

लेकिन मनुष्य के भीतर एक विक्षिप्तता है--हर चीज में रहस्य खोजने की। इस कारण दुनिया में बहुत तरह के रहस्यवाद चलते रहते हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं है। अगर है तो जीवन परम रहस्य है और जीवन की हर चीज रहस्य है। लेकिन उस रहस्य की कोई थाह नहीं है। कोई उसे माप नहीं पाया, कोई उसे माप भी नहीं सकता है। तुम भी रहस्य हो, मगर तुम्हारे नाम में क्या रखा है? तुम हो रहस्य! तुम्हारे होने में रहस्य है। मगर वह ऐसा रहस्य है कि जितने डूबोगे उतना ही पाओगे--और-और शेष है। जितना जानोगे, उतना पाओगे--और जानने को शेष है।

➡ *प्रीतम छवि नैनन बसी*

*💕ओशो💕👏👏👏👏👏*

हरिदादा।

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मैं जबलपुर में जब पहली दफा गया तो मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे--हरिदादा।

उनको पड़ोस के लोग हरिदादा कहते थे, क्योंकि उनको रहीम के दोहे बड़े याद थे और हर चीज में वे दोहा जड़ देते थे रहीम का। सो उनकी ख्याति एक धार्मिक आदमी की तरह थी। और हर एक को उपदेश देते थे। जब मैं पहुंचा तो स्वभावतः उन्होंने मुझे भी उपदेश देने की कोशिश की। और उनको माना जाता था वे बड़े विनम्र हैं। और वे विनम्रता की बड़ी बातें करते थे। लेकिन उन्हें मेरे  जैसा आदमी पहले मिला नहीं होगा। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तो आपके पैर की धूल हूं। मैंने कहा, "वह तो मुझे दिखाई ही पड़ रहा है। आप बिलकुल पैर की धूल हैं! आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।"

वे एकदम नाराज हो गये कि आप क्या बात कहते हैं!
मैंने कहा, "मैं तो वही कह रहा हूं जो आपने कहा। मैंने तो एक शब्द भी नहीं जोड़ा। आप ने ही कहा, आपने ही शुरू किया। मैंने तो सिर्फ स्वीकृति दी कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैं देख ही रहा हूं आपका चेहरा बिलकुल धूल है! आपकी समझ बिलकुल साफ है, आपने ठीक पहचाना

वे तो ऐसे नाराज हुए कि फिर दुबारा मुझसे बात न करें। रास्ते में मिल जाएं, मैं जय रामजी करूं तो जवाब न दें। मैं भी यूं छोड़ देने वाला नहीं था। मुंह फेर कर निकलना चाहें तो मैं उनके चारों तरफ लगाऊं कि नमस्कार, कि आप उस दिन बिलकुल ठीक कह रहे थे, आप बिलकुल पैर की धूल हैं!

अहंकार क्या-क्या भाषाएं सीख लेता है! वे भूल गये सब चौपाइयां। सब चौपाइयां चौपाए हो कर भाग खड़ी हुईं। फिर रहीम वहीम के दोहे उन्हें याद न रहे। नहीं तो वे बड़े दोहे दोहराते थे। और मोहल्ले के लोग भी कहने लगे कि मामला क्या है। मुझसे पूछने लगे।

एक डॉक्टर दत्ता सामने ही रहते थे, वे मुझसे पूछने  लगे कि आपने कर क्या दिया? जब से आप आए हो, हरिदादा बचे-बचे फिरते हैं। और आपका तो नाम लेते ही गरम हो जाते हैं, हमने इनको  कभी गर्म नहीं देखा।

मैंने कहा, "वे गरम इसलिए हो जाते हैं कि मैंने उनकी बात मान ली, आप लोगों ने मानी नहीं। वे कहते थे हम आपके पैर की धूल हैं, आप वे कहते थे कि नहीं-नहीं अरे हरिदादा ऐसा कहीं हो सकता है! आप तो सिरताज हैं! आप तो बड़े धार्मिक साधु पुरुष हैं! वे इसलिए तो बेचारे कहते थे कि आप कहो साधु-पुरुष हैं। और मैंने उनकी मान ली, इससे मुझसे नाराज हैं। इससे मेरी जयराम जी का भी उत्तर नहीं देते। मगर मैं भी कुछ छोड़ देने वाला नहीं हूं। मैं दस-पांच दफा दिन में मिल ही जाता हूं उनको। नहीं अगर मिल पाते तो दरवाजे पर दस्तक देता हूं कि हरिदादा जयराम जी! वे मुझे देख कर ही एकदम गरमा जाते हैं। और गरमाने का कुल कारण इतना है कि मैंने वही स्वीकार कर लिया जो वे कहते हैं।"

पांच सात साल उनके पड़ोस में रहा, उनका सारा संतत्व खराब हो गया। क्योंकि जो-जो बातें वे कह रहे थे, सब उधार थीं, सब बासी थीं। उनमें कहीं कोई अर्थ न था। मगर इस तरह के तुम्हें हर गांव, हर देहात में, हर नगर में लोग मिलेंगे--जिन्होंने अपने अहंकार पर एक पतली सी झीनी चादर विनम्रता की ओढ़ा दी है। तुम जरा चादर खींच कर देखो; कुछ बहुत मोटी भी नहीं है, बिलकुल साफ झलक रहा है। अहंकार यह नया आभूषण बना लेता है। अहंकार की चालें बड़ी गहरी हैं। अहंकार बहुत सूक्ष्म है।

और *अहंकार* ही सारी विरह-विथा है। इसी से तुम्हारे तन-मन में पीड़ा है।  इस मूल कारण को समझो।

➡ *ज्यूं मछली बिन नीर*

*💕ओशो 💕👏👏👏👏👏*

जो मांगता ही नहीं ,उसके लिए सारे जगत की शुभ शक्तियां आतुर हो जातीं है

🌹*जो मांगता ही नहीं ,उसके लिए सारे जगत की शुभ शक्तियां आतुर हो जातीं है*🌹

जिसे नितांत अकेले होने का साहस है, वही इस खोज पर जा भी सकता है।
मन तो हमारा यही करता है कि कोई साथ हो, कोई गुरु साथ हो, कोई मित्र साथ हो, कोई जानकार साथ हो, कोई मार्गदर्शक साथ हो, कोई सहयोगी साथ हो; अकेले होने के लिए हमारा मन नहीं करता।
लेकिन जब तक कोई अकेला नहीं हो सकता है, तब तक आत्मिक खोज की दिशा में इंच भर भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
अकेले होने की सामर्थ्य, दि करेज टु बी अलोन, सबसे कीमती बात है।
हम तो दूसरे को साथ लेना चाहेंगे। महावीर को कोई निमंत्रण देता है आकर कि मुझे साथ ले लो, मैं सहयोगी बन जाऊंगा, तो भी वे सधन्यवाद वह निमंत्रण वापस लौटा देते हैं! कथा यह है कि देव इंद्र खुद कहता है आकर कि मैं साथ दूं, सहयोगी बनूं! तो वे कहते हैं, क्षमा करें, यह खोज ऐसी नहीं है कि कोई इसमें साथी हो सके, यह खोज तो नितांत अकेले ही करने की है।
क्यों? यह अकेले का इतना आग्रह क्यों है?
अकेले के आग्रह में बड़ी गहरी बातें हैं।
पहली बात तो यह है कि जब हम दूसरे का साथ मांगते हैं, तभी हम कमजोर हो जाते हैं। असल में साथ मांगना ही कमजोरी है। वह हमारा कमजोर चित्त ही है, जो कहता है साथ चाहिए। और कमजोर चित्त क्या कर पाएगा? जो पहले से ही साथ मांगने लगा, वह कर क्या पाएगा? तो पहली तो जरूरत यह है कि हम साथ की कमजोरी छोड़ दें।
और पूरी तरह जो अकेला हो जाता है--जिसके चित्त से संग की, साथ की मांग, समाज की, सहयोग की इच्छा मिट जाती है; यह बड़ी अदभुत बात है कि जो इस भांति अकेला हो जाता है, जिसे किसी के संग की कोई इच्छा नहीं है--सारा जगत उसे संग देने को उत्सुक हो जाता है! इस कहानी में जो दूसरा मतलब है, वह यह कि खुद देवता भी उत्सुक हैं उस व्यक्ति को सहारा देने को, जो अकेला खड़ा हो गया! जो साथ मांगता है, उसे तो साथ मिलता नहीं। नाम मात्र को लोग साथी हो जाते हैं, साथ मिलता नहीं। असल में मांग से कोई साथ पा ही नहीं सकता है।
लेकिन जो मांगता ही नहीं साथ, जो मिले हुए साथ को भी इनकार कर देता है, उसके लिए सारे जगत की शुभ शक्तियां आतुर हो जाती हैं साथ देने को। कहानी तो काल्पनिक है, मिथ है, पुराण है, गाथा है, प्रबोध कथा है। वह कहती यह है कि जब कोई व्यक्ति नितांत अकेला खड़ा हो जाता है तो जगत की सारी शुभ शक्तियां उसको साथ देने को आतुर हो जाती हैं!
💎 महावीर मेरी दृष्टि में 💎
    💎 प्रवचन - 19 💎

मन की शुद्धि

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               *_मन की शुद्धि_*

नैतिक व्यक्ति का आचरण हमें समझ में आता है। हमें पता है, क्या बुरा है और क्या भला है। जो भला करता है, वह हमें समझ में आता है। जो बुरा करता है, वह भी समझ में आता है। लेकिन संत भले और बुरे करने के दोनों के पार हो जाता है। उसका आचरण स्पाटेनियस, सहज हो जाता है। उसके भीतर से जो उठता है वह करता है। न वह भले का चिंतन करता है, न बुरे का चिंतन करता है।

तो कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम भला कहते थे, वह संत न करे। कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जो समाज की धारणा में बुरा था, वह संत करे। जैसे जीसस, या कबीर, या बुद्ध, या महावीर समाज की धारणाओं से बहुत अतिक्रमण कर जाते हैं।

महावीर नग्न खड़े हो गए! समाज की धारणा में नग्न खड़े हो जाना अशिष्टता है, अनैतिकता है। समाज नग्न लोगों को बर्दाश्त नहीं करेगा। उसके कारण हैं। क्योंकि समाज ने शरीर को ही नहीं ढाका है, शरीर के साथ उसने कामवासना को भी ढाका है। कामवासना से इतना भय है कि उसे छिपाकर रखना पड़ता है। नग्न आदमी की कामवासना प्रगट हो जाती है। नग्न आदमी का शरीर कामवासना की दृष्टि से ढंका हुआ नहीं है। तो समाज नग्नता को पसंद नहीं करेगा। वह मानेगा कि उसमें अनीति है।

महावीर नग्न खड़े हो गए। बड़ी अड़चन हो गई। गांव गांव से महावीर को हटाया गया। जगह जगह उन पर पत्थर फेंके गए। जगह जगह उनकी निंदा की गई। और महावीर मौन भी थे। नग्न भी थे, मौन भी थे, बोलते भी नहीं थे। जवाब भी नहीं देते थे कि क्यों नग्न हैं न: क्यों खड़े हैं यहां? क्या प्रयोजन है? तो और भी बेक हो गए थे।

लेकिन महावीर की नग्नता अनैतिक नहीं है। महावीर की नग्नता को नैतिक कहना भी मुश्किल है। महावीर की नग्नता बड़ी साहजिक है, छोटे बच्चे की भांति निर्दोष है। वहां नीति और अनीति दोनों नहीं हैं। महावीर वैसे सरल हो गए हैं, जहां ढांकने को कुछ भी नहीं बचा है। जिसके पास ढांकने को कुछ बचा है, वह जटिल है। जो चाहता है कुछ छिपाए उसमें थोड़ीसी जटिलता है। महावीर सरल हो गए हैं। उस सरलता में इतनी सीमा आ गई है, जहां वस्त्रों को ढोने का उन्हें कोई आकर्षण नहीं रहा है। लेकिन महावीर की नग्नता को सामान्य समाज अनैतिक समझेगा। महावीर के संतत्व को समझने में बड़ी जटिलता है। 

जीसस एक गांव से गुजरे और एक वेश्या ने आकर उनके पैरों पर सिर रख दिया और उसके आंसू बहने लगे। उसने अपने आंसुओ से उनके पैर भिगो दिए। गांव के जो नैतिक पुरुष थे, उन्होंने कहा कि वेश्या  द्वारा अपने को छूने देना उचित नहीं है। उन्होंने जीसस से कहा कि इस वेश्या को कहो कि तुम्हें न छुए। संत को तो साधारण स्त्री का स्पर्श भी वर्जित है, तो यह तो वेश्या है। जीसस ने कहा कि मेरे चरण अब तक जितने लोगों ने छुए हैं, इतनी पवित्रता से किसी ने कभी नहीं छुए। लोगों ने जल से मेरे पैर धोए हैं, इस स्त्री ने मेरे पैरों को अपने प्राणों के आंसुओ  से धोया है।

जीसस पर जो जुर्म थे, जिनकी वजह से उन्हें सूली लगी, उसमें एक जुर्म यह भी था। साधारण उनके समाज की जो नीति की धारणा थी, उसके विपरीत थी यह बात।

एक स्त्री को जीसस के पास लोग लाए, क्योंकि वह व्यभिचारिणी थी, और यहूदी कानून था कि जो स्त्री व्यभिचार करे, उसे पत्थरों से मारकर मार डालना न्यायसंगत है। तो जीसस गांव के बाहर ठहरे थे। लोगों ने उनसे आकर कहा कि यह स्त्री व्यभिचारिणी है। और इसके पक्के प्रमाण मिल गए हैं। न केवल प्रमाण, बल्कि इस स्त्री ने भी स्वीकार कर लिया है। इसलिए अब कोई सवाल नहीं है। और पुरानी किताब कहती है कि इस स्त्री को पत्थरों से मारकर मार डालना उचित है, न्यायसंगत है। आप क्या कहते है?

जीसस ने कहा, पुरानी किताब ठीक कहती है। लेकिन वे ही लोग पत्थर मारने के अधिकारी हैं, जिन्होंने व्यभिचार न तो किया हो और न सोचा हो। तुम पत्थर उठाओ। तो व्यभिचार, कौन है जिसने नहीं किया, या नहीं सोचा : वे जो समाज के बड़े पंडित और मुखिया थे, पंच थे, वे चुपचाप भीड़ में पीछे हटने लगे। धीरे धीरे लोग जो पत्थर लेकर आए थे, वे पत्थर छोड्कर गांव की तरफ भाग गए। जीसस पर यह भी एक जुर्म था कि उन्होंने एक व्यभिचारिणी स्त्री को बचा लिया।

जीसस का व्यवहार नीति के सामान्य दायरे में नहीं बंधता है। साहजिक है। जो सहज उनकी चेतना में उठ रहा है, वह कर रहे हैं। वे न तो सोचेंगे कि समाज की धारणा से मेल खाता है कि नहीं मेल खाता। वह विचार नैतिक व्यक्ति करता है।

धार्मिक व्यक्ति बड़ी अनूठी घटना है। इसका यह मतलब नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति अनिवार्य रूप से अनैतिक हो जाता है। उसका आचरण नीति और अनीति से मुक्त होता है। कभी नीति से मेल भी खा जाता है, कभी मेल नहीं भी खाता। लेकिन यह उसके मन में अभिप्राय नहीं है कि मेल खाए या मेल न खाए। क्योंकि जब तक हम सोचते हैं : किसी धारणा से मेरा आचरण मेल खाए तब तक हमारा आचरण असत्य होगा; तब तक हमारा आचरण पाखंड होगा; तब तक आचरण भीतर से नहीं आ रहा है, बाहर के मापदंडों से तौला जा रहा है। तब तक आचरण आत्मा की अभिव्यक्ति नहीं है। तब तक आचरण समाज का अनुसरण है।

नैतिक व्यक्ति समाज का अनुसरण करता है। इसलिए जिनको आप साधु कहते हैं, आमतौर से नैतिक होते हैं, धार्मिक नहीं। और जब भी कोई व्यक्ति धार्मिक हो जाता है, तब आपको अड़चन शुरू हो जाती है। क्योंकि तत्‍क्षण उसके आचरण को आप अपने ढांचों में नहीं बिठा पाते। आपके जो पैटर्न हैं, सोचने के जो ढाचे हैं, वह उनसे ज्यादा बड़ा है। सब ढांचे टूट जाते हैं।

शुद्ध मन उपनिषद कहता है उस मन को, जहां नीति और अनीति की सारी तरंगें खो गई हैं; जहां मन बिलकुल सूना हो गया, शून्य हो गया; जहा कोई विजातीय तत्व न रहा। विचार विजातीय तत्व है।

पानी में कोई दूध मिला देता है, तो हम कहते हैं, दूध शुद्ध नहीं है। लेकिन बड़े मजे की बात है, अगर शुद्ध पानी मिलाया हो तो? तो दूध शुद्ध है या नहीं? तो भी दूध अशुद्ध है। बिलकुल शुद्ध दूध और शुद्ध पानी मिलाया हो, तो दो शुद्धताएं मिलकर भी दूध अशुद्ध होगा।

अशुद्धि का संबंध इससे नहीं है कि जो मिलाया आपने वह शुद्ध था या नहीं। अशुद्धि का संबंध इससे है कि जो मिलाया वह विजातीय है, फारेन एलीमेंट है। वह दूध नहीं है, जो मिलाया आपने; वह पानी है। वह शुद्ध होगा। विजातीय तत्व का प्रवेश अशुद्धि है।

मन में मन के बाहर से कुछ भी आ जाए तो अशुद्धि है। वह शुद्ध विचार आया, अशुद्ध विचार आया, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाहर से कुछ भी मन में आया, अशुद्धि हो गई। *मन में बाहर से कुछ भी न आए, मन अकेला हो, अपने में हो, तो शुद्ध है। शुद्धि की यह बात ठीक से खयाल में ले लेनी जरूरी है।*

➡ *कठोपनिषद*

*💕ओशो💕👏👏👏👏👏*