ओशो....
मैं एक कहानी पढ़ता था। यूरोप का एक बहुत बड़ा विचारक हुआ, एडमंड बर्क। वह रोज सुनने जाता था एक पादरी को। पादरी ने एक दिन चर्च में कहा कि जो लोग पुण्यात्मा हैं और परमात्मा में भरोसा करते हैं, वे स्वर्ग जाते हैं। एडमंड बर्क खड़ा हो गया। उसने कहा, मुझे एक बात पूछनीहै। आपने दो बातें कहीं, कि जो लोग पुण्यात्मा हैं, और परमात्मा में भरोसा करते हैं, वे स्वर्ग जाते हैं। मैं पूछता हूं कि जो लोग पुण्यात्मा हैं और परमात्मा में भरोसा नहीं करते, वे कहां जाते हैं? और मैं यह भी पूछना चाहता हूं कि जो परमात्मा में भरोसा करते हैं और पुण्यात्मा नहीं हैं, वे कहां जाते हैं?
एडमंड बर्क की जिज्ञासा एकदम प्रामाणिक थी। पादरी भी ठगा सा रह गया। अब क्या कहे? उसे बड़ी उलझन हो गयी। अगर वह कहे कि जो लोग पुण्यात्मा हैं और परमात्मा में भरोसा नहीं करते, वे भी स्वर्ग जाते हैं; तो स्वभावतः बर्क कहेगा, फिर परमात्मा में भरोसे की जरूरत क्या है? पुण्य ही काफी है। और अगर मैं कहूं कि जो लोग पुण्यात्मा हैं और परमात्मा में भरोसा नहीं करते, वे स्वर्ग नहीं जाते; तो बर्क कहेगा, तो फिर पुण्य की झंझट में पड़ने की क्या जरूरत? परमात्मा में भरोसा काफी है। पादरी ने कहा, मुझे तुमने उलझन में डाल दिया। थोड़ा मुझे सोचने का समय दो; कल।
रातभर पादरी सो न सका। आदमी निष्ठावान रहा होगा। चालाक नहीं, बुद्धिमान रहा होगा। बहुत सोचा, लेकिन उलझन न हल हुई। सुबह-सुबह, भोर होते-होते, रातभर का जागा सोचता-सोचता नींद लग गयी। नींद में उसने एक सपना देखा कि वह एक ट्रेन में बैठा है। उसने लोगों से पूछा, यह ट्रेन कहां जा रही है? उन्होंने कहा, यह स्वर्ग जा रही है। उसने कहा, चलो अच्छा हुआ! यही तो मुझे पूछना था। यह अच्छा ही हुआ, आंख से ही देख लूंगा। तो उसने सोच रखे नाम मन में--जैसे सुकरात; परमात्मा में भरोसा नहीं करता था, आदमी पुण्यात्मा था। जैसे बुद्ध; इससे और पुण्य की साकार प्रतिमा कहां पाओगे? लेकिन आदमी परमात्मा में भरोसा नहीं करता था। तो उसने कहा, ठीक है, अगर ये बुद्ध और ये सुकरात स्वर्ग में मिल गए तो उत्तर साफ हो जाता है, कि परमात्मा में भरोसे की जरूरत नहीं। अगर ये स्वर्ग में न मिले, तो भी उत्तर साफ हो जाता है कि पुण्य से कुछ भी न होगा, असली चीज परमात्मा में भरोसा है।
स्वर्ग के स्टेशन पर उतरा, बड़ी हैरानी हुई। स्टेशन बड़ा उदास था। जैसे कई जमानों की धूल जमी हो, किसी ने साफ न की हो। थोड़ा हैरान हुआ। जाकर गौर से देखा तख्ती पर, तो स्वर्ग ही लिखा है। गांव में प्रविष्ट हुआ, बड़ी बेरौनक थी बस्ती। कहीं फूल खिलते न मालूम पड़ते थे। और किसी घर से वीणा के स्वर न उठते थे। कहीं कोई नाचता न मिला। मिले भी ऐसे--धर्मगुरु, पादरी, मुनि; मगर कोई रौनक न मिली। ऐसे जैसे मुर्दे चल रहे हों। कहीं कोई महोत्सव न मिला। जिंदगी ऐसी लगी जैसे एक बोझ हो वहां। उसने पूछा कई से कि सुकरात, गौतम बुद्ध? लोगों ने कहा, नाम सुने नहीं। यहां नहीं हैं। दूसरी जगह, नर्क में खोजो।
भागा स्टेशन आया। पूछा कि नर्क की गाड़ी? भाग्य से खड़ी थी, जा ही रही थी। वह बैठ गया। नर्क पहुंचा तो बड़ा हैरान होने लगा। जैसे किसी महोत्सव में प्रवेश हो रहा हो। बड़ा स्वच्छ था स्टेशन। जीवन मालूम पड़ता था। फूल खिले थे, गीत बजते थे, लोग चलते थे तो उनके पैरों में गति थी, रौनक थी, रंग-बिरंगापन था, जीवन का इंद्रधनुष जैसे खिला था। वह बड़ा हैरान हुआ कि यह तो कुछ गड़बड़ है। नाम में, तख्ती में कुछ भूल-चूक हो गयी। इसको स्वर्ग होना चाहिए। उसने पूछा कि सुकरात और बुद्ध? उन्होंने कहा कि हां, वे यहां हैं। और नाम में कोई गलती नहीं हुई है। उनके आने से ही यह नर्क स्वर्ग हो गया।
नींद खुल गयी उसकी। घबड़ाहट में नींद खुल गयी कि यह क्या मामला है? सपना तो खो गया। जब वह सुबह चर्चगया, उसने कहा कि भई, मैं कुछ और न कह सकूंगा, लेकिन रात एक सपना आया है वह मैं दोहरा देता हूं उत्तर में। सपने में मुझे ऐसा दिखायी पड़ा; कहां तक सही है, कहां तक झूठ है, कुछ कह नहीं सकता। मेरी कोई सामर्थ्य भी नहीं इसका निर्णय लेने की। इतना मुझे दिखायी पड़ा और वह यह कि जहां भी पुण्यात्मा पुरुष पहुंच जाते हैं, वहीं स्वर्ग है। जहां पापी पहुंच जाते हैं, वहीं नर्क है। पापी नर्क जाते हैं, ऐसा नहीं। पापी अपना नर्क अपने साथ लेकर चलते हैं। और पुण्यात्मा स्वर्ग जाते हैं, ऐसा नहीं। पुण्यात्मा अपना स्वर्ग अपने साथ लेकर चलते हैं। तुम उन्हें कहीं भी फेंक दो।
और मुझे भी बात जंचती है। सपना नहीं, सच मालूम होती है। बुद्ध को तुम नर्क में भी डाल दो तो तुम नर्क में न डाल सकोगे। यह असंभावना है। बुद्ध वहां स्वर्ग खड़ा कर लेंगे। बुद्ध अपना स्वर्ग अपने साथ लेकर चलते हैं, वह बुद्ध के जीवन की हवा है। वह उनके आसपास चलता हुआ मौसम है। उसको तुम उनसे छीन न सकोगे। नर्क बदल जाएगा, बुद्ध न बदलेंगे। तुम बुद्ध को दुखी नहीं कर सकते, तो तुम नर्क में कैसे डाल सकते हो? तुम तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरुओं को सुखी नहीं कर सकते, तुम स्वर्ग कैसे भेज सकते हो?
बस इसी धुन में रहा मर के मिलेगी जन्नत
तुझको ऐ शेख न जीने का करीना आया
हे धर्मगुरु, तुझे जीने का करीना न आया। तू इसी आशा में रहा कि मरकर मिलेगा स्वर्ग। जिसने जीते जी स्वर्ग न पाया, वह मरकर कैसे पा लेगा? जब जीते जी चूक गए तो मुर्दा होकर कैसे पा लोगे? स्वर्ग तो होता है तो जीवन से जुड़ताहै, मौत से नहीं। स्वर्ग होता है तो जीवन से निकलता है। मौत से कैसे निकलेगा? स्वर्ग मरघटों में नहीं है। स्वर्ग वहां है जहां जीवन नाचता है हजार-हजार रंगों में। स्वर्ग वहां है जहां जीवन की धुन बज रही है हजार-हजार स्वरों में। स्वर्ग वहां है जहां तुम जितने गहरे जीवंत हो जाते हो।
स्वर्ग सिकुड़ना नहीं है, फैलाव है। इसलिए हिंदुओं ने अपने परम सत्य को ब्रह्म कहा है। ब्रह्म का अर्थ होता है,विस्तीर्ण। ब्रह्म का अर्थ है, जो फैलता ही गया है। जिसकी कोई सीमा नहीं आती।
तुमने कभी खयाल किया, दुख सिकुड़ता है, आनंद फैलता है। दुख का स्वभाव है सिकुड़ना। जब तुम दुखी होते हो, तब तुम चाहते हो द्वार-दरवाजे बंद करके बैठ जाओ। कोई मिलने न आए, किसी से बात न करनी पड़े, बाजार न जाना पड़े। तब तुम अपने को बंद कर लेना चाहते हो। सिकुड़करपड़ जाना चाहते हो बिस्तर में। अगर बहुत ही दुखी हो जाता है आदमी, तो मरने की चेष्टा करने लगता है। कब्र में समा जाना चाहता है, ताकि फिर कभी कोई दुबारा न मिले। अकेला हो जाऊं। इसलिए दुखी आदमी आत्मघात कर लेता है। लेकिन जब सुख भरता है, जब महासुख उतरता है, जब तुम नाचते होते हो, तब तुमसे कोई कहे घर में बैठो; तुम कहोगे, नहीं, अभी तो जाना है, अभी तो बांटना है, अभी तो फैलना है।
तुमने देखा, महावीर और बुद्ध जब दुखी थे, जंगल भाग गए। लेकिन जब आनंदित हुए, जब उतरा अमृत उनके जीवन में, लौट आए वापस बस्ती में। इस पर किसी ने कभी कोई सोचा नहीं, कि जब वे दुखी थे तब जंगल भाग गए थे--अकेले में। उसकी बड़ी कथाएं शास्त्रों में हैं, कि उन्होंने सब छोड़ दिया और जंगल चले गए। लेकिन इस संबंध में शास्त्र कुछ भी नहीं कहते कि एक दिन उन्होंने जंगल छोड़ दिया और बस्ती में वापस आ गए।
वह दूसरी घटना और भी महत्वपूर्ण है। क्योंकि जब आनंद उनके जीवन में उतरा तो बांटने का भाव भी आया। आनंद के साथ आती है करुणा। आनंद के साथ आती है एक अभीप्सा कि बांटो, लुटो। जो मिला है, उसे दूसरों को दे दो। क्योंकि आनंद का एक स्वभाव है: बांटो, बढ़ता है; न बांटो,घटता है। लुटाओ, बढ़ता है; छिपाओ, मरता है।
एस धम्मो सनंननो--(प्रवचन--05)
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