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मैं जबलपुर में जब पहली दफा गया तो मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे--हरिदादा।
उनको पड़ोस के लोग हरिदादा कहते थे, क्योंकि उनको रहीम के दोहे बड़े याद थे और हर चीज में वे दोहा जड़ देते थे रहीम का। सो उनकी ख्याति एक धार्मिक आदमी की तरह थी। और हर एक को उपदेश देते थे। जब मैं पहुंचा तो स्वभावतः उन्होंने मुझे भी उपदेश देने की कोशिश की। और उनको माना जाता था वे बड़े विनम्र हैं। और वे विनम्रता की बड़ी बातें करते थे। लेकिन उन्हें मेरे जैसा आदमी पहले मिला नहीं होगा। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तो आपके पैर की धूल हूं। मैंने कहा, "वह तो मुझे दिखाई ही पड़ रहा है। आप बिलकुल पैर की धूल हैं! आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।"
वे एकदम नाराज हो गये कि आप क्या बात कहते हैं!
मैंने कहा, "मैं तो वही कह रहा हूं जो आपने कहा। मैंने तो एक शब्द भी नहीं जोड़ा। आप ने ही कहा, आपने ही शुरू किया। मैंने तो सिर्फ स्वीकृति दी कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैं देख ही रहा हूं आपका चेहरा बिलकुल धूल है! आपकी समझ बिलकुल साफ है, आपने ठीक पहचाना
वे तो ऐसे नाराज हुए कि फिर दुबारा मुझसे बात न करें। रास्ते में मिल जाएं, मैं जय रामजी करूं तो जवाब न दें। मैं भी यूं छोड़ देने वाला नहीं था। मुंह फेर कर निकलना चाहें तो मैं उनके चारों तरफ लगाऊं कि नमस्कार, कि आप उस दिन बिलकुल ठीक कह रहे थे, आप बिलकुल पैर की धूल हैं!
अहंकार क्या-क्या भाषाएं सीख लेता है! वे भूल गये सब चौपाइयां। सब चौपाइयां चौपाए हो कर भाग खड़ी हुईं। फिर रहीम वहीम के दोहे उन्हें याद न रहे। नहीं तो वे बड़े दोहे दोहराते थे। और मोहल्ले के लोग भी कहने लगे कि मामला क्या है। मुझसे पूछने लगे।
एक डॉक्टर दत्ता सामने ही रहते थे, वे मुझसे पूछने लगे कि आपने कर क्या दिया? जब से आप आए हो, हरिदादा बचे-बचे फिरते हैं। और आपका तो नाम लेते ही गरम हो जाते हैं, हमने इनको कभी गर्म नहीं देखा।
मैंने कहा, "वे गरम इसलिए हो जाते हैं कि मैंने उनकी बात मान ली, आप लोगों ने मानी नहीं। वे कहते थे हम आपके पैर की धूल हैं, आप वे कहते थे कि नहीं-नहीं अरे हरिदादा ऐसा कहीं हो सकता है! आप तो सिरताज हैं! आप तो बड़े धार्मिक साधु पुरुष हैं! वे इसलिए तो बेचारे कहते थे कि आप कहो साधु-पुरुष हैं। और मैंने उनकी मान ली, इससे मुझसे नाराज हैं। इससे मेरी जयराम जी का भी उत्तर नहीं देते। मगर मैं भी कुछ छोड़ देने वाला नहीं हूं। मैं दस-पांच दफा दिन में मिल ही जाता हूं उनको। नहीं अगर मिल पाते तो दरवाजे पर दस्तक देता हूं कि हरिदादा जयराम जी! वे मुझे देख कर ही एकदम गरमा जाते हैं। और गरमाने का कुल कारण इतना है कि मैंने वही स्वीकार कर लिया जो वे कहते हैं।"
पांच सात साल उनके पड़ोस में रहा, उनका सारा संतत्व खराब हो गया। क्योंकि जो-जो बातें वे कह रहे थे, सब उधार थीं, सब बासी थीं। उनमें कहीं कोई अर्थ न था। मगर इस तरह के तुम्हें हर गांव, हर देहात में, हर नगर में लोग मिलेंगे--जिन्होंने अपने अहंकार पर एक पतली सी झीनी चादर विनम्रता की ओढ़ा दी है। तुम जरा चादर खींच कर देखो; कुछ बहुत मोटी भी नहीं है, बिलकुल साफ झलक रहा है। अहंकार यह नया आभूषण बना लेता है। अहंकार की चालें बड़ी गहरी हैं। अहंकार बहुत सूक्ष्म है।
और *अहंकार* ही सारी विरह-विथा है। इसी से तुम्हारे तन-मन में पीड़ा है। इस मूल कारण को समझो।
➡ *ज्यूं मछली बिन नीर*
*💕ओशो 💕👏👏👏👏👏*
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