लाओत्से को मानने वाले एक छोटा सा प्रयोग सदियों से करते रहे हैं।
और वह प्रयोग बड़ा बढ़िया है। वे कहते हैं कि जब तक आपके
भीतर केंद्र का ही आपको पता
नहीं है, यू कैन नॉट ग्रो, तब तक आपमें कोई विकास
नहीं हो सकता। तो वे एक छोटा सा प्रयोग करते हैं। दो
छोटे से आप हौज बना लें और पानी भर दें। बराबर एक
मात्रा के हौज, एक सा पानी। एक हौज में एक लोहे का
डंडा लगा दें बीच में केंद्र पर। और एक हौज में डंडा न
लगाएं, खाली रखें, बिना केंद्र का। दो मछलियां, एक
ही उम्र की, उन दोनों में छोड़ दें। आप
हैरान होंगे, जिसमें डंडा लगा हुआ है, उसकी
मछली जल्दी बढ़ेगी; और
जिसमें डंडा नहीं लगा है, उसकी
मछली जल्दी नहीं
बढ़ेगी।
जिसमें डंडा लगा हुआ है, वह मछली उसका चक्कर
लगाती रहेगी दिन-रात। केंद्र है और केंद्र
के आस-पास वह घूमती चली
जाती है, घूमती चली
जाती है। जिस हौज में डंडा नहीं लगा है,
उसकी मछली इधर-उधर
भटकती रहेगी। कहीं कोई
केंद्र नहीं है, जिसके आस-पास घूम सके।
उसकी ग्रोथ नहीं होगी, वह
स्वस्थ नहीं होगी, बीमार रह
जाएगी। यह हजारों साल से चलता हुआ प्रयोग है
और सदा इसका एक ही परिणाम होता है कि जिसमें
केंद्र है जिस हौज में, उसकी मछली
स्वस्थ, जल्दी विकसित होती है, ज्यादा
ताजी, ज्यादा जीवंत होती है।
लाओत्से को मानने वाले कहते हैं कि जिस व्यक्ति को अपने केंद्र
का पता चल जाता है, उसकी चेतना उस केंद्र का
इसी मछली की तरह चक्कर
लगाने लगती है। और तब चेतना में विकास शुरू हो जाता
है। जिनको केंद्र का ही पता नहीं है, वे
उस मछली की तरह रह जाएंगे–बेजान,
लोच, निर्जीव। क्योंकि कोई केंद्र नहीं है,
जिसके आस-पास वे घूम सकें और विकसित हो सकें। उनको दिशा
ही नहीं मालूम पड़ेगी–कहां
जाएं? क्या करें? क्या हो जाएं? भटकेंगे वे भी। एक
ही परिधि पर निरंतर परिभ्रमण से चेतना विकसित
होती है।
तो लाओत्से कहता है कि यह जो नाभि का केंद्र है, आपको पता
चल जाए, तो आपकी चेतना को एकाग्र गति मिल
जाती है–ए कनसनट्रेटेड मूवमेंट।
आपकी चेतना फिर वहीं घूमती
रहती है।
लाओत्से कहता है, चलो, लेकिन ध्यान नाभि का रखो। बैठो, ध्यान
नाभि का रखो। उठो, ध्यान नाभि का रखो। कुछ भी करो,
लेकिन तुम्हारी चेतना नाभि के आस-पास
घूमती रहे। एक मछली बन जाओ और
नाभि के आस-पास घूमते रहो। और शीघ्र
ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक नई
शक्तिशाली चेतना का जन्म हो गया।
इसके अदभुत परिणाम हैं। और इसके बहुत प्रयोग हैं। आप यहां
एक कुर्सी पर बैठे हुए हैं। लाओत्से कहता है कि
आपके कुर्सी पर बैठने का ढंग गलत है।
इसीलिए आप थक जाते हैं। लाओत्से कहता है,
कुर्सी पर मत बैठो। इसका यह मतलब
नहीं कि कुर्सी पर मत बैठो,
नीचे बैठ जाओ। लाओत्से कहता है,
कुर्सी पर बैठो, लेकिन कुर्सी पर वजन
मत डालो। वजन अपनी नाभि पर डालो।
अभी आप यहीं प्रयोग करके देख सकते
हैं। एम्फेसिस का फर्क है। जब आप कुर्सी पर
वजन डाल कर बैठते हैं, तो कुर्सी सब कुछ हो
जाती है, आप सिर्फ लटके रह जाते हैं
कुर्सी पर, जैसे एक खूंटी पर कोट लटका
हो। खूंटी टूट जाए, कोट तत्काल जमीन
पर गिर जाए। कोट की अपनी कोई
केंद्रीयता नहीं है, खूंटी केंद्र
है। आप कुर्सी पर बैठते हैं–लटके हुए कोट
की तरह।
लाओत्से कहता है, आप थक जाएंगे। क्योंकि आप चैतन्य मनुष्य
का व्यवहार नहीं कर रहे हैं और एक जड़ वस्तु को
सब कुछ सौंपे दे रहे हैं। लाओत्से कहता है, कुर्सी
पर बैठो जरूर, लेकिन फिर भी अपनी नाभि
में ही समाए रहो। सब कुछ नाभि पर टांग दो। और घंटों
बीत जाएंगे और आप नहीं थकोगे।
अगर कोई व्यक्ति अपनी नाभि के केंद्र पर टांग कर
जीने लगे अपनी चेतना को, तो थकान–
मानसिक थकान–विलीन हो जाएगी। एक
अनूठा ताजापन उसके भीतर सतत प्रवाहित रहने
लगेगा। एक शीतलता उसके भीतर
दौड़ती रहेगी। और एक आत्मविश्वास, जो
सिर्फ उसी को होता है जिसके पास केंद्र होता है, उसे
मिल जाएगा।
तो पहली तो इस साधना की व्यवस्था है कि
अपने केंद्र को खोज लें। और जब तक नाभि के करीब
केंद्र न आ जाए–ठीक जगह नाभि से दो इंच
नीचे, ठीक नाभि भी
नहीं–नाभि से दो इंच नीचे जब तक केंद्र
न आ जाए, तब तक तलाश जारी रखें। और फिर इस
केंद्र को स्मरण रखने लगें। श्वास लें तो यही केंद्र
ऊपर उठे, श्वास छोड़ें तो यही केंद्र नीचे
गिरे। तब एक सतत जप शुरू हो जाता है–सतत जप। श्वास के
जाते ही नाभि का उठना, श्वास के लौटते ही
नाभि का गिरना–अगर इसका आप स्मरण रख सकें…।
कठिन है शुरू में। क्योंकि स्मरण सबसे कठिन बात है। और सतत
स्मरण बड़ी कठिन बात है। आमतौर से हम सोचते हैं
कि नहीं, ऐसी क्या बात है? मैं एक
आदमी का नाम छह साल तक याद रख सकता हूं।
यह स्मरण नहीं है; यह स्मृति है। इसका फर्क
समझ लें। स्मृति का मतलब होता है, आपको एक बात मालूम है,
वह आपने स्मृति के रिकाघडग को दे दी। स्मृति ने उसे
रख ली। आपको जब जरूरत पड़ेगी, आप
फिर रिकार्ड से निकाल लेंगे और पहचान लेंगे। स्मरण का अर्थ है:
सतत, कांसटेंट रिमेंबरिंग।
आप जरा कोशिश करें, एक पांच मिनट के लिए प्रयोग करें कि मैं
अपने पेट के उठने और गिरने का खयाल रखूंगा, भूलूंगा
नहीं। दो सेकेंड बाद आप पाएंगे, आप भूल चुके हैं,
कुछ और कर रहे हैं। फिर घबड़ाहट आएगी कि यह
तो मैं भूल गया, दो सेकेंड भी याद नहीं रख
सका! श्वास अभी भी चल
रही है, पेट अब भी हिल रहा है; लेकिन
आप कहीं गए। फिर लौटा लाएं अपने स्मरण को। अगर
आप निरंतर प्रयास करें, तो धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे, सेकेंड-सेकेंड आपका स्मरण
बढ़ेगा। और जिस दिन आप कम से कम तीन मिनट
सतत, मुतवातिर, एक क्षण को भी बिना चूके–
तीन मिनट कोई लंबा वक्त नहीं है, लेकिन
जब प्रयोग करेंगे, तब आपको पता चलेगा कि तीन साल
से भी लंबा मालूम पड़ेगा–एक दफे भी
चूकें नहीं, तीन मिनट केवल! तो आपको
पता चलेगा कि अब आपको केंद्र का ठीक-
ठीक अनुभव होना शुरू हो गया। और तब सब
शरीर अलग और केंद्र अलग झलकने लगेगा।
और यह केंद्र ऊर्जा का केंद्र है। इससे जो संयुक्त है,
उसकी महिमा अपार है। क्योंकि वह निरंतर अनंत
ऊर्जा को उपलब्ध कर रहा है।
तो एक तो सतत स्मरण रखें नाभि के केंद्र का और उसके आस-
पास ही अपनी चेतना को परिभ्रमण करने
दें। वही मंदिर है, उसकी ही
परिक्रमा जारी रखें। कुछ भी हो जाए–
क्रोध हो, घृणा हो, वैमनस्य हो,र् ईष्या हो, दुख हो, सुख हो–
लाओत्से कहता है, हर हालत में, कुछ भी हो, पहला
काम नाभि पर लौटने का करें, फिर दूसरा काम कुछ भी
करें। किसी ने खबर दी कि प्रियजन मर
गए, तो पहले नाभि पर जाएं और फिर इस खबर को ग्रहण करें।
और तब, लाओत्से कहता है, कोई भी मर जाए, चित्त
पर कोई चोट नहीं पहुंचेगी।
कभी आपने खयाल न किया हो, लेकिन शायद
कभी खयाल आया भी हो, या
पीछे लौट कर प्रत्यभिज्ञा हो जाए, जब
भी आपको कोई बहुत गहरी खबर सुनाता
है, खुशी की या दुख की, तो
चोट नाभि पर लगती है। रास्ते पर आप चले जा रहे
हैं, साइकिल पर या कार में और एकदम एक्सीडेंट होने
की हालत आ गई, आपने खयाल किया है कि
पहली चोट नाभि पर लगती है, धड़ से नाभि
पर चोट जाती है। नाभि कंपित होती है,
तभी सब कुछ कंपित होता है।
लाओत्से कहता है, जब भी कुछ हो, तो आप सचेतन
रूप से पहले नाभि पर जाएं। पहला काम नाभि, फिर दूसरा कोई
भी काम। तो न सुख आपको सुखी कर
पाएगा इतना कि आप पागल हो जाएं, न दुख आपको
दुखी कर पाएगा इतना कि आप दुख से एक हो जाएं।
तब आपका केंद्र अलग और परिधि पर घटने वाली
घटनाएं अलग रह जाएंगी। और आप
साक्षी मात्र रह जाएंगे। योग कहता है,
साक्षी की साधना करो। लाओत्से कहता है,
सिर्फ नाभि को सतत स्मरण रखो, साक्षी
की घटना फलित हो जाएगी, घटित हो
जाएगी।
यह जो नाभि का केंद्र है, जिस दिन ठीक-
ठीक पता चल जाए, उसी दिन आप मृत्यु
और जन्म के बाहर हो जाते हैं। क्योंकि जन्म के पहले यह नाभि
का केंद्र आता है; और मृत्यु के बाद यही बचता है,
बाकी सब खो जाता है। तो जो व्यक्ति भी
इस केंद्र को जान लेता है, वह जान लेता है, न तो मेरा जन्म है
और न मेरी मृत्यु है। वह अजन्मा और अमृत हो
जाता है।
सतत स्मरण रखें। केंद्र को खोजें, सतत स्मरण रखें।
पहली बात, केंद्र को खोज लें। दूसरी बात,
स्मरण रखें। तीसरी बात, बार-बार जब
स्मरण खो जाए, तो स्मरण खोता है इसका भी स्मरण
रखें। वह थोड़ा कठिन पड़ेगा।
जैसे कि आप किसी चीज पर ध्यान दे रहे
हैं। तो लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हमने नाभि पर ध्यान
दिया, लेकिन वह खो जाता है। फिर क्या करें? तो उनसे मैं कहता हूं,
खो गया, इसको भी स्मरण रखें कि अब खो गया। इसको
भी ध्यान का हिस्सा बनाएं। बी अटेंटिव
ऑफ दि इनअटेंशन आल्सो। वह जो घटना घट रही है
खोने की, उसको भी ध्यानपूर्वक! उसको
भी गैर-ध्यानपूर्वक मत खोने दें। जब भी
चूक जाएं, तत्काल स्मरण करें कि चूक गया। वापस लौट जाएंगे,
कुछ और करने की जरूरत नहीं, सिर्फ
इतना स्मरण कि चूक गया, स्मरण वापस लौट आएगा, धारा फिर जुड़
जाएगी।
और चौथी बात, जब स्मरण पूरा हो जाए, केंद्र स्पष्ट
दिखाई पड़ने लगे, अनुभव होने लगे, तो सब कुछ केंद्र के लिए
समर्पित कर दें, सरेंडर कर दें। उस केंद्र को ही कह
दें कि तू ही मालिक है, अब मैं छोड़ता हूं। और यह
आसान हो जाता है।
समर्पण बहुत कठिन है, जब तक केंद्र का पता न हो। लोग
कहते हैं, परमात्मा के लिए समर्पण कर दो। लेकिन परमात्मा का
कोई पता नहीं। जिसका पता नहीं, उसके
लिए समर्पण कैसे कर दो? और परमात्मा आ भी जाए,
तो भी समर्पण आपको करना हो, तो मालिक तो आप
ही बने रहते हैं समर्पण के भी। अगर
कल दिल नाराज हो जाए और लगे कि यह परमात्मा कुछ
अपनी मनपसंद का नहीं, तो अपना
समर्पण वापस ले ले सकते हैं कि छोड़ो, हमने अपना समर्पण
वापस लिया। देने वाले हम थे, ले भी हम सकते हैं।
क्या, परमात्मा करेगा क्या? अगर आप अपना समर्पण वापस ले लें,
तो परमात्मा करेगा क्या? तो जो समर्पण वापस भी लिया
जा सकता है, वह समर्पण तो नहीं है। वह दिया
ही नहीं गया कभी।
लाओत्से की प्रक्रिया अलग है। लाओत्से कहता है,
जिस दिन इस केंद्र का पता चलता है, उस दिन समर्पण करना
नहीं पड़ता, आपको अनुभव होने लगता है कि केंद्र
मालिक है ही, मेरे बिना केंद्र सब कुछ कर रहा है।
श्वास ले रहा है, छोड़ रहा है; जीवन की
धारा चल रही है; नींद आ
रही है, जागरण आ रहा है; जन्म हो रहा है, मृत्यु
हो रही है; सब केंद्र कर रहा है मेरे बिना कुछ किए।
तो अब समर्पण का क्या सवाल है? समर्पण हो जाता है।
तो चौथी, आखिरी जो घटना है इस साधना में,
वह है केंद्र के प्रति समर्पण को अनुभव कर लेना। फिर अहंकार
के बचने का कोई उपाय नहीं–कोई उपाय
ही नहीं। ऐसी समर्पित
अवस्था में व्यक्ति परम सत्ता को उपलब्ध हो जाता है।
लाओत्से
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