One of Gautam Buddha's disciples, Manjushri, became
enlightened. He had been meditating for almost twenty
years, and those who had already become enlightened
immediately recognized him.
Sariputra told him, "Why don't you go and tell the master?"
💧💦💧💦💧💦💧💦💧💦💧
एक वैज्ञानिक एक प्रयोग करता था।
उसने दो बाल्टियों में पानी भरा और दो मेंढक पकड़कर लाया। एक बाल्टी में उसने उबलता हुआ पानी भरा और मेंढक को उसमें छोड़ा। जानते हैं आप क्या हुआ? मेंढक छलांग लगाकर बाहर निकल गया। उबलता हुआ पानी था। क्या होता? और होना क्या था? इतना तीव्र था उत्ताप जल का--मेंढक दौड़ा, वह छलांग लगाकर बाहर निकल गया। इस बात का दिखाई पड़ जाना मेंढक को कि आग सा पानी है--फिर कुछ करना थोड़े ही पड़ा। हो गई बात। निकल गया बाहर।
दूसरी बाल्टी में उसने मेंढक को डाला। उसमें कुनकुना पानी--ल्यूक-वार्म और धीरे-धीरे बाल्टी को नीचे से वह गरम करता गया। मेंढक मर गया। धीरे-धीरे पानी गरम होता गया, धीरे-धीरे पानी गरम होता गया। मेंढक को किसी तल पर यह पता नहीं चला कि पानी इतना गरम हो गया है कि मैं निकल जाऊं। धीरे-धीरे पानी गरम हुआ, मेंढक एडजस्ट होता गया। मेंढक जो था, वह धीरे-धीरे उस पानी से राजी होता गया, वह धीरे-धीरे गरम होता गया--डिग्री, आधा-डिग्री गरम होता रहा। मेंढक भी उसके साथ तैयारी करता रहा और गरम होता गया। मेंढक, थोड़ी देर में जब वह पानी उबला तो मेंढक उसी में उबल गया और मर गया।
पहला मेंढक छलांग लगाकर क्यों निकल सका? दूसरा मेंढक छलांग लगाकर क्यों नहीं निकल सका?
दूसरे मेंढक को पानी के गरम होने का तथ्य तीव्रता से दिखाई नहीं पड़ सका। धीरे-धीरे पानी गरम होता गया, वह एडजस्ट होता गया और अंत में मर गया।
जो अहिंसक दिखाई पड़ते हैं, वे अपनी हिंसा को कभी नहीं देख पाते अहिंसा के कारण। उनके भीतर की हिंसा ल्यूक-वार्म मालूम पड़ने लगती है, कुनकुनी मालूम पड़ने लगती है। वे रोज छानकर पानी पी लेते हैं। रात भोजन नहीं करते हैं। मांस नहीं खाते हैं। ऐसे वे अहिंसक हो जाते हैं। भीतर की हिंसा कुनकुनी मालूम पड़ने लगती है। लेकिन अगर वे अहिंसा की इस सारी बातचीत को अलग कर दें और पूरी दृष्टि से भीतर की हिंसा को देखें तो जैसे मेंढक छलांग लगाकर बाहर निकल गया, वैसे ही मनुष्य हिंसा के बाहर निकल सकता है। वैसे ही मनुष्य दुख के भी बाहर निकल सकता है। वैसे ही मनुष्य अज्ञान के भी बाहर निकल सकता है।
लेकिन हमारे आदर्श हमारे जीवन को कुनकुना बना देते हैं। और जो आदमी अपने जीवन को जितना आदर्शों से घेर लेता है, उतना ही उसके जीवन में ट्रांसफार्मेशन, वह क्रांति का क्षण कभी भी नहीं आ पाता, जो जीवन को बदल दे और नया कर दे।
अस्वस्थ चित्त है आदर्शों के कारण। लेकिन हम तो यही सोचते रहे हैं हजारों वर्षों से कि आदर्शों के कारण ही हम मनुष्य हैं! पशु नहीं हैं, फलां नहीं हैं, ढिकां नहीं हैं! आदर्श ही हमारे जीवन का लक्ष्य हैं। आदर्श जिसके जीवन में है, वही महान है! आदर्श जिसके जीवन में है, वही नैतिक, वही धार्मिक है!
झूठी हैं ये सब बातें। आदर्श जिसके जीवन में है, वह कभी धार्मिक हो ही नहीं सकेगा। आदर्श खुद को धोखा देने का, सेल्फ डिसेप्शन की तरकीब है, साइंस है। और हजारों साल से आदमी अपने को धोखा दे रहा है। इस प्रवंचना को तोड़ना जरूरी है।
जिस व्यक्ति को भी स्वस्थ चित्त उपलब्ध करना हो, उसे आदर्शों के जाल से मुक्त हो ही जाना चाहिए। फिर हम जीवन के तथ्यों को जैसे वे हैं, देखने में समर्थ हो सकते हैं। फिर हम अपने भीतर उतर सकते हैं और खोज सकते हैं--हिंसा को, क्रोध को, घृणा को।
स्वास्थ्य तो आधा इससे ही उपलब्ध हो जाएगा, जिस क्षण आपके आदर्शों से चित्त मुक्त हो गया। आप एकदम सरल हो जाएंगे। एक ह्यूमिलिटी, एक विनम्रता आ जाएगी। आदर्श की वजह से एक दंभ आ जाता है--मैं अहिंसक हूं, मैं फलां हूं, मैं ढिकां हूं, मैं धार्मिक हूं--ये सब अहंकार के रूप हैं, रोग हैं।
लेकिन जो आदमी सारे आदर्शों को मन से हटा देता है, और मन की तथ्यात्मकता को, वह जो मन है--हिंसा, क्रोध, घृणा से भरा हुआ,र् ईष्या से भरा हुआ--उसको जानता है वह एकदम विनम्र हो जाता है। एक ह्यूमिलिटि अचानक उसके ऊपर आ जाती है। वह देखता है, मैं क्या हूं? तथ्य बताते हैं कि मैं क्या हूं ?
*मेरी असलियत क्या है*?
और जिस दिन वह पूरी शांति से और पूरी सरलता से, पूरी विनम्रता से इन तथ्यों को देखता है--वह देखना ही, वह दर्शन एक छलांग बन जाती है--एक जंप, उसके जीवन में आ जाता है, एक क्रांति उसके जीवन में आ जाती है।
# *असंभव क्रांति*~ *प्रवचन-5*
🌹 *ओशो*👏👏👏👏👏
😀 यह जानकर तुम हैरान होओगे कि प्रत्येक व्यक्ति अलग इंद्रिय से मरता है। किसी की मौत आंख से होती है, तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा। किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है, तो मुंह खुला रह जाता है। अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते। तुम्हारी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मरघट ले जाते हैं किसी को तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं। वह सिर्फ प्रतीक है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है।
जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है। जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है। जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है।
उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है। मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो! प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है। यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है। इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में। इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है। इसलिए हम साधारण आदमी की कब्र को कब्र कहते हैं, फकीर की कब्र को समाधि कहते हैं—समाधिस्थ होकर जो मरा है।
प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है। जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था। उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता। अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है—आदमी कहां जीया.........🌹
🍁 *कहै वाजिद पुकार, प्रवचन-७* 🍁
🔥 _*ओशो*_ 🔥
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*संसार पाठशाला है*
इस्लाम कहता है कि स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं। पूछना चाहिए कि क्या करोगे, इन शराब के चश्मों का! क्योंकि यहां तो तुम लोगों को सिखाते हो--शराब न पीयो। जो शराब पीते हैं, वे तो नर्क जायेंगे। वे तो बहिश्त जायेंगे नहीं। जाहिर है--गणित साफ है। जो यहां शराब नहीं पीते, शराब छोड़े हुए हैं, जीवन का सब राग-रंग तोड़ा हुआ है, गृहस्थ नहीं है--विरागी हैं, उदासी हैं--वे जायेंगे स्वर्ग। मगर वे करेंगे क्या कहां--शराब के चश्मों का--जिन्होंने कभी पी ही नहीं।
व इल न तुम पियो--धर्म-गुरु न तो तुम पीते हो, न किसी को पिला सको।--और न तुम किसी को पिला सकते हो; क्या बात है तुम्हारी शराब-एत्तहूर की; फिर सार क्या हुआ--तुम्हारे स्वर्ग की शराब का? न तुम खुद पीओगे, न किसी को पिला सकोगे। न पीने की हिम्मत है, न पिलाने की हिम्मत है, और वहां जो लोग होंगे, वे न पीने वाले होगे। कसमें खाये हुए लोग होगे। वहां शराब के चश्मे बहाने से सार भी क्या है!
ये पंक्तियां महत्वपूर्ण हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर तुम्हें परमात्मा के जीवन में कभी प्रवेश करना हो, तो उदास हो कर प्रवेश मत करना। इस जीवन में जहां, भी जैसे भी, जितना भी, क्षण-भंगुर सही, जो सुख मिलता हो, उसका स्वाद लो। उस स्वाद में भी परमात्मा का स्वाद अनुभव करो। बूंद सही, लेकिन बूंद में से भी है तो सागर ही। क्षण-भंगुर सही, लेकिन क्षण-भंगुर में भी छाया तो पड़ी शाश्वत की।
इसलिए भक्त कहता है: जीवन से भागो मत; जीवन को छोड़ो मत;जीवन को जीओ।
मलूक कहते हैं; घर में रहे उदासी। भागो मत कहीं; बीच बाजार में रहो। घर में रहे उदासी।
और उदासी का अर्थ मैंने समझाया--उदास नहीं। उदासी का अर्थ है--उद आसीत--परमात्मा के पास बैठा रहे। रहे बाजार में, लेकिन मन परमात्मा के पास रहे। बैठक उसके पास लगी रहे। शरीर बाजार में रहे और प्राण उसके पास रहें। ऐसे आदमी का नाम उदासी।
नाचो--गाओ--गुनगुनाओ। वसंत है तो खिलो--फूलों जैसे। और जब वृक्ष नाचते हो हवाओं में, तो तुम भी नाचो। और जब सूरज उगे, तो गुनगुनाओ--गीत गाओ, प्रार्थना करा। सब तरह से अपनी जीवन को आनंद से भरो और हर आनंद में परमात्मा का अनुग्रह स्वीकार करो,तो ही तुम किसी दिन स्वर्ग के आनंद को पाने के योग्य बन सकोगे। नहीं तो स्वाद ही नहीं रहेगा!
जरा सोचो तो, तुम्हारे सब उदासी--तथाकथित उदासी और विरागी और संन्यासी--सब स्वर्ग पहुंच जाए, तो स्वर्ग की हालत नरक से भी बदतर हो जाए। हो गई होगी तब तक। तुम्हें नरक में चाहे थोड़े भले आदमी भी मिल जाए--मुस्कुराते, गुनगुनाते, गीत गाते, नाचते, मगर स्वर्ग में कहां मिलेंगे!
स्वर्ग बड़ा उदास हो गया होगा! स्वर्ग में धूल जम गई होगी। स्वर्ग में कोई उत्सव तो नहीं हो रहा होगा।
ये पंक्तियां ठीक ही हैं कि--वाइज, न तुम पीयो, न किसी को पिला सको। क्या बात है तुम्हारी शराब-एत्तहूर की!
पीना तो यहीं सीखो। संसार पाठशाला है। संसार छोटा सा आंगन है, जिसमें तुम उड़ना सीखो, ताकि एक दिन तुम विराट के आंगन में भी उड़ सको।
इस संसार में और परमात्मा में कोई अनिवार्य विरोध नहीं है। यह परमात्मा की ही सीढ़ी है। होना ही चाहिए। उसका है, तो उसकी ही सीढ़ी होगी। उसका हो कर उसके विपरीत कैसे होगा? इन सीढ़ियों का उपयोग करो। निश्चित इसके पार जाना है। सीढ़ियों पर अटक नहीं जाना है। लेकिन इसका उपयोग करो।
# *कन थोरे कांकर घने*
🌹 *ओशो *👏👏👏👏👏
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*संसार पाठशाला है*
इस्लाम कहता है कि स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं। पूछना चाहिए कि क्या करोगे, इन शराब के चश्मों का! क्योंकि यहां तो तुम लोगों को सिखाते हो--शराब न पीयो। जो शराब पीते हैं, वे तो नर्क जायेंगे। वे तो बहिश्त जायेंगे नहीं। जाहिर है--गणित साफ है। जो यहां शराब नहीं पीते, शराब छोड़े हुए हैं, जीवन का सब राग-रंग तोड़ा हुआ है, गृहस्थ नहीं है--विरागी हैं, उदासी हैं--वे जायेंगे स्वर्ग। मगर वे करेंगे क्या कहां--शराब के चश्मों का--जिन्होंने कभी पी ही नहीं।
व इल न तुम पियो--धर्म-गुरु न तो तुम पीते हो, न किसी को पिला सको।--और न तुम किसी को पिला सकते हो; क्या बात है तुम्हारी शराब-एत्तहूर की; फिर सार क्या हुआ--तुम्हारे स्वर्ग की शराब का? न तुम खुद पीओगे, न किसी को पिला सकोगे। न पीने की हिम्मत है, न पिलाने की हिम्मत है, और वहां जो लोग होंगे, वे न पीने वाले होगे। कसमें खाये हुए लोग होगे। वहां शराब के चश्मे बहाने से सार भी क्या है!
ये पंक्तियां महत्वपूर्ण हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर तुम्हें परमात्मा के जीवन में कभी प्रवेश करना हो, तो उदास हो कर प्रवेश मत करना। इस जीवन में जहां, भी जैसे भी, जितना भी, क्षण-भंगुर सही, जो सुख मिलता हो, उसका स्वाद लो। उस स्वाद में भी परमात्मा का स्वाद अनुभव करो। बूंद सही, लेकिन बूंद में से भी है तो सागर ही। क्षण-भंगुर सही, लेकिन क्षण-भंगुर में भी छाया तो पड़ी शाश्वत की।
इसलिए भक्त कहता है: जीवन से भागो मत; जीवन को छोड़ो मत;जीवन को जीओ।
मलूक कहते हैं; घर में रहे उदासी। भागो मत कहीं; बीच बाजार में रहो। घर में रहे उदासी।
और उदासी का अर्थ मैंने समझाया--उदास नहीं। उदासी का अर्थ है--उद आसीत--परमात्मा के पास बैठा रहे। रहे बाजार में, लेकिन मन परमात्मा के पास रहे। बैठक उसके पास लगी रहे। शरीर बाजार में रहे और प्राण उसके पास रहें। ऐसे आदमी का नाम उदासी।
नाचो--गाओ--गुनगुनाओ। वसंत है तो खिलो--फूलों जैसे। और जब वृक्ष नाचते हो हवाओं में, तो तुम भी नाचो। और जब सूरज उगे, तो गुनगुनाओ--गीत गाओ, प्रार्थना करा। सब तरह से अपनी जीवन को आनंद से भरो और हर आनंद में परमात्मा का अनुग्रह स्वीकार करो,तो ही तुम किसी दिन स्वर्ग के आनंद को पाने के योग्य बन सकोगे। नहीं तो स्वाद ही नहीं रहेगा!
जरा सोचो तो, तुम्हारे सब उदासी--तथाकथित उदासी और विरागी और संन्यासी--सब स्वर्ग पहुंच जाए, तो स्वर्ग की हालत नरक से भी बदतर हो जाए। हो गई होगी तब तक। तुम्हें नरक में चाहे थोड़े भले आदमी भी मिल जाए--मुस्कुराते, गुनगुनाते, गीत गाते, नाचते, मगर स्वर्ग में कहां मिलेंगे!
स्वर्ग बड़ा उदास हो गया होगा! स्वर्ग में धूल जम गई होगी। स्वर्ग में कोई उत्सव तो नहीं हो रहा होगा।
ये पंक्तियां ठीक ही हैं कि--वाइज, न तुम पीयो, न किसी को पिला सको। क्या बात है तुम्हारी शराब-एत्तहूर की!
पीना तो यहीं सीखो। संसार पाठशाला है। संसार छोटा सा आंगन है, जिसमें तुम उड़ना सीखो, ताकि एक दिन तुम विराट के आंगन में भी उड़ सको।
इस संसार में और परमात्मा में कोई अनिवार्य विरोध नहीं है। यह परमात्मा की ही सीढ़ी है। होना ही चाहिए। उसका है, तो उसकी ही सीढ़ी होगी। उसका हो कर उसके विपरीत कैसे होगा? इन सीढ़ियों का उपयोग करो। निश्चित इसके पार जाना है। सीढ़ियों पर अटक नहीं जाना है। लेकिन इसका उपयोग करो।
# *कन थोरे कांकर घने*
🌹 *ओशो *👏👏👏👏👏
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*मैं कौन हूं, मैं क्या हूं, मैं कहां से हूं, मैं कहां के लिए हूं?*
पहला प्रश्न जो प्रत्येक को अपने से पूछ लेना चाहिए, वह यह कि "क्या मैं अपने को जानता हूं?' मैं कौन हूं, मैं क्या हूं, मैं कहां से हूं, मैं कहां के लिए हूं?
लेकिन किसी बात का कोई उत्तर नहीं है! न ज्ञात है कि मैं कौन हूं, न ज्ञात है कि मैं क्या हूं, न ज्ञात है कि मैं कहां से हूं, न ज्ञात है कि मैं कहां के लिए जा रहा हूं। इन चार बुनियादी प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है, लेकिन हम स्वीकार कर लिए हैं कि हम अपने को जानते हैं!
शॉपेनहार--एक सुबह, कोई तीन बजे होंगे, एक छोटे-से बगीचे में गया हुआ था। रात थी। अभी अंधेरा था। बगीचे का माली हैरान हुआ कि इतनी रात गये कौन आ गया है। उसने अपनी लालटेन उठायी, अपना भाला उठाया और वह गया बगीचे के भीतर । शॉपेनहार वहां टहलता है वृक्षों के पास और कुछ अपने से ही बातें कर रहा है!
उस माली को शक हुआ कि जरूर कोई पागल घुस आया है, अकेला अपने से बातें कर रहा है! उसने दूर से ही खड़े होकर आवाज दी और पूछा कि "कौन हो, कहां से आये हो, किसलिए आये हो, क्या चाहते हो?'
शॉपेनहार जोर से हंसने लगा और उसने कहा, "तुम ऐसे कठिन प्रश्न पूछते हो, जिनका उत्तर आज तक कोई आदमी नहीं दे पाया। पूछते हो, कौन हो? जिंदगी भर हो गया मुझे पूछते-पूछते, अब तक मुझे उत्तर नहीं मिला कि कौन हूं! पूछते हो कहां से आये हो? आज तक कोई आदमी नहीं बता सका कि कहां से आया है! मैं भी असमर्थ हूं। पूछते हो, किसलिए आये हो? उसका भी मुझे पता नहीं कि किसलिए आया हूं!'
निश्चित ही उस माली ने समझा होगा कि पागल ही है यह आदमी, जिसे इतना भी पता नहीं। लेकिन माली पागल था या वह आदमी, जिसे पता नहीं था। कौन था पागल?
अगर आपको पता है या आपको भ्रम है कि आपको पता है तो आप पागल हो सकते हैं। लेकिन अगर आपको पता नहीं है तो यह मनुष्य की स्थिति है, यह हयुमन सिचुएशन है कि आदमी को पता नहीं है। इसमें पागलपन का कोई सवाल नहीं है।
लेकिन कहीं हम पागल न मालूम पड़ने लगें, इसलिए हमने कुछ व्यवस्था कर ली है। कुछ अपने को पहचानने और जानने का आयोजन कर लिया है। हमने कुछ उपाय कर लिये हैं, जिससे हमें ऐसा लगे कि हम अपने को जानते हैं। हमने अपने नाम रख लिए है, अपनी जाति बना ली है, अपना धर्म बना लिया है, अपना देश बना लिया है!
हमें इंगित किया जा सके कि कौन है यह आदमी--तो हमारा नाम है, हमारी जाति है, हमारा धर्म है, हमारा देश है; हमारे मां-बाप हैं, उनके नाम हैं; हमारी वंश परंपराएं हैं! और हमने कुछ इंतजाम कर लिया है, जिस भांति यह पहचाना जा सके कि मैं कौन हूं। और हमारी सारी व्यवस्था झूठी है, हमारी सारी व्यवस्था कल्पित और सपने जैसी है। क्या है नाम किसी का? क्या है किसी की जाति? क्या है किसी का धर्म? कौन-सा है देश, किसका?
लेकिन हमने जमीन पर भी झूठी रेखाएं खींच रखी हैं--भारत की और चीन की, और रूस की और अमरीका की! झूठी रेखाएं, जो जमीन पर कहीं भी नहीं है, लेकिन ताकि हम कह सकें कि मैं यहां से हूं!
और हमने आदमी के आसपास भी झूठे नाम और लेबल चिपका रखे हैं। कोई राम है, कोई कृष्ण है, कोई कोई है! वे नाम भी बिलकुल झूठे हैं। आदमी कोई नाम लेकर पैदा नहीं होता है।
और हमने जातियों के नाम भी चिपका रखे हैं! वे नाम भी बिलकुल झूठे हैं। आदमी किसी जाति में पैदा नहीं होता। सब जातियां आदमी के ऊपर थोपी जाती हैं।
और हमने मां-बाप के नाम भी अपने साथ जोड़ रखे हैं! न उनका कोई नाम था, न उनके मां-बाप का कोई नाम था, न उनके मां-बाप का कोई नाम था।
लेकिन हमने एक छोटा-सा कोना बना लिया है ज्ञान का, और ऐसा भ्रम पैदा कर लिया है कि हम अपने को जानते हैं। इसी भ्रम में हम जीते हैं और नष्ट हो जाते हैं।
साधक को यह भ्रम तोड़ देना चाहिए, यह कोना उजाड़ देना चाहिए। उसे जान लेना चाहिए ठीक-ठीक कि मेरा कोई नाम नहीं है, मेरी कोई जाति नहीं है। मेरा कोई देश नहीं है; मेरा परिचय नहीं, मैं बिलकुल अज्ञात हूं। जैसे ये हवाओं के झोंके अज्ञात हैं, जैसे ये वृक्ष अज्ञात हैं, जैसे ये आकाश के चांदत्तारे अज्ञात हैं, जैसे यह सागर का पानी अनाम और अपरिचित और अज्ञात है, वैसे ही आदमियों के जीवन की लहरें भी अज्ञात हैं, अनजानी हैं, अपरिचित हैं।
# *नेति नेति (सत्य की खोज*)
🌹 *ओशो*👏👏👏👏👏
Bliss is a fragrance.
You cannot achieve it directly.
You have to grow rose bushes;
when the roses arrive
there will be fragrance automatically.
Bliss is a fragrance of meditation.
Meditation means
become more and more silent.
The noisy person cannot be blissful
one needs the music of silence.
And our minds are too noisy.
We are carrying
almost a whole marketplace in our heads,
all kinds of rubbish.
And we are not one,
we are a crowd inside, many people,
and they are constantly quarrelling,
fighting with each other, trying to dominate.
Each fragment of our mind
wants to become the most powerful one.
There is constant inner politics.
You cannot find bliss
in this constant inner war.
Bliss is possible
only if this continuous war ceases.
And it can cease;
it is not very difficult to get beyond it.
All that is needed is awareness.
We are not aware
of this whole phenomenon that goes on.
It goes on inside like an under-current.
We are almost oblivious of it.
It is always there, day in, day out,
but we are not conscious of it.
Bring conciousness to it.
Slowly, watch the subtle layers of noisiness,
and slowly slowly you will become aware
of so much chattering that it appears almost
as if a madhouse is inside the head.
And we are living in this nightmare.
Through watching a miracle happens:
whatsoever you can watch
starts evaporating.
And the moment it evaporates
you are left with a deep silence.
In the beginning there are only intervals,
small gaps when thoughts cease,
when you can look through small windows
into reality.
But slowly those gaps become bigger;
they start coming more often,
then they start staying longer.
It has been calculated by the ancienct mystics
- and I totally agree with them -
that if a person can remain totally silent
for forty-eight minutes
he attains to enlightenment,
he becomes absolutely blissful.
And then it lasts forever,
then there is no going back.
You have gone into the beyond,
you have reached beyond time
and its constant shifting sands.
You have reached the rock of eternity.
That's where one comes to realize
one's immortality.
That is the ultimate target of sannyaS.
(The Golden Wind )
OSHO~the~GREAT ❤
🌹❤ Should we try to become more moral, virtuous, respectable? Or should we try to change the being? ❤🌹
Love is not like a flower, it cannot be. And those who expect love from you are fools, they are asking the impossible. Those who ask from you morality are fools, they are asking the impossible. Your morality is bound to be a sort of immorality.
Look at your moral persons, your so-called saints. Watch and observe them and you will find their faces are just the faces of hypocrisy, deception. They say something, they do something else. They do something, and they not only hide it from you – they have become so clever in hiding, they hide it from themselves.
In ignorance, sin is natural. In enlightenment, virtue is natural. A buddha cannot sin; you cannot do otherwise – you can only sin. Sin and virtue are not your decisions, they are not your acts, they are shadows of your being. If you awaken, then the shadow falls and the shadow is full of light. And the shadow never harms anybody, it cannot harm; it has a flavor of the unknown, of the immortal. It can only shower on you like a blessing; otherwise is not possible. Even if a buddha gets angry with you, it is compassion – it cannot be otherwise. Your compassion is not true; Buddha’s anger cannot be true. Your sin, your natural shadow, whatsoever you do – you can decorate it, you can make a temple on top of it, you can hide it, you can beautify it, but that won’t help – deep inside you will find it there, because it is not a question of what you do, it is a question of what you are.
Look at the emphasis. If you understand this change of emphasis, and this change of emphasis is a great point, only then you will be able to understand tantra.
Tantra is a great teaching. It doesn’t teach about acts, it teaches only about your being. Who you are is the point – fast asleep, snoring, or awake? Who are you – alert, conscious, or moving in a hypnosis? Are you a sleepwalker? or are you awake, alert, whatsoever you do? Do you do it with self-remembrance? No. It happens – you don’t know why, from where it comes, from what part of the unconscious comes an urge which possesses you, and you have to act.
This act, whatsoever the society says about it – moral or immoral, sin or virtue – tantra doesn’t bother about it. Tantra looks at you, at the very center of your being from where it comes. Out of the poison of your ignorance, life cannot come, only death. Out of your darkness, only darkness is born. And that seems to be absolutely natural. So what to do? Should we try to change the acts? Should we try to become more moral, virtuous, respectable? Or should we try to change the being?
The being can be changed. There is no need to wait for it for infinite lives. If you have the intensity of understanding, if you bring your total effort, energy, being, to understand it, in that very intensity, a light suddenly burns in you. A flame comes up from your being like lightning, and your whole past and your whole future is suddenly in your vision – you understand what has happened, you understand what is happening, you understand what is going to happen. Suddenly everything has become clear; as if it was dark and somebody brought a light, and suddenly everything is clear.
Tantra believes in burning your inner light. And tantra says that with that light, the past simply becomes irrelevant. It never belonged to you. Of course, it happened, but happened as if in a dream and you were fast asleep. It happened – you did many things, good and bad, but they all happened in unconsciousness, you were not responsible. And suddenly everything of the past is burnt down, a fresh and virgin being comes up – this is sudden enlightenment.
🌹❤ Osho ❤🌹
🌹🌹 Zorba The Buddha 🌹🌹
🌹🌹🌹🙏🌹🌹🌹
*💕प्रेम ही परमात्मा है 💕*
प्रेम शब्द से न चिढ़ो। यह हो सकता है कि तुमने जो प्रेम समझा था वह प्रेम ही नहीं था। उससे ही तुम जले बैठे हो। और यह भी मैं जानता हूँ कि दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँककर पीने लगता है।
तो तुम्हें प्रेम शब्द सुनकर पीड़ा उठ आती होगी, चोट लग जाती होगी। तुम्हारे घाव हरे हो जाते होंगे। फिर से तुम्हें अपनी पुरानी यादें उभर आती होंगी। लेकिन मैं उस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूँ।
*मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूँ उस प्रेम का तो तुम्हें अभी पता ही नहीं है। और मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूँ वह तो कभी असफल होता ही नहीं। और मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूँ उसमें अगर कोई जल जाए तो निखरकर कुंदन बन जाता है, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूँ उसमें जलकर कोई जलता नहीं और जीवंत हो जाता है। व्यर्थ जल जाता है, सार्थक निखर आता है।*
लेकिन मैं तुम्हारी तकलीफ भी समझता हूँ। बहुतों की तकलीफ यही है। इसलिए तो प्रेम जैसे प्यारे शब्द, बहुमूल्य शब्द ने अपना अर्थ खो दिया है.
जैसे हीरा कीचड़ में गिर गया हो।
*लोग कहते हैं मुहब्बत में असर होता है।*
*कौन-से शहर में होता है, कहाँ होता है।*
स्वभावतः तुमने तो जिसको प्रेम करके जाना था उसमें सिवा दुख के और कुछ भी नहीं पाया, पीड़ा के सिवा कुछ हाथ न लगा। तुमने तो सोचा था कि प्रेम करेंगे तो जीवन में वसंत आएगा। प्रेम ही पतझड़ लाया। प्रेम न करते तो ही भले थे। प्रेम ने सिर्फ नए-नए नर्क बनाए।
और ऐसा ही नहीं है कि जो प्रेम में हारते हैं उनके लिए ही नर्क और दुख होता है; जो जीतते हैं उनके लिए भी नर्क और दुख होता है।
जॉर्ज बर्नाड शॉ ने कहा है- दुनिया में दो ही दुख हैं, एक तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा तुम जो चाहो वह मिल जाए। और दूसरा दुख मैं कहता हूँ कि पहले से बड़ा है। क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश, मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में, कि करता सवारी बादलों की, चाँद-तारों से बातें, खिलता कमल के फूलों की भाँति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूँ।
मजनू को मैं कहूँगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे है कि मजनू धन्यभागी था; बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।
जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएँ असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों ? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुँचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।
रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है और पहुँचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।
बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएँ, समग्ररूपेण न हार जाएँ तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।
*“किस-दर्जा दिलशिकन थे*
*मुहब्बत के हादिसे*
*हम जिंदगी में फिर कोई*
*अरमाँ न कर सके।”*
एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।
*“दिल की वीरानी का क्या मजकूर है,*
*यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।”*
और इतनी दफे लुट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो।
मैं तुमसे कहता हूँ, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।
तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अद्भुीत कौम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया हरि। हरि का अर्थ होता है. लुटेरा, जो लूट ले, जो हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। जो हरण कर ले।
*लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-छोटी बातों में लुट गए!* चुल्लू-चुल्लू पानी में डूबकर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ,कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब मैं तुमसे कहता हूँ, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जँचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी है।
*“मेरी मायूस मुहब्बत की*
*हकीकत मत पूछ*
*दर्द की लहर है*
*अहसास के पैमाने में।”*
तुम्हारा प्रेम सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हँसना न आया। आँसू ही आँसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आई।
*“इश्क का कोई नतीजा नहीं*
*जुज दर्दो-आलम*
*लाख तदबीर किया कीजे*
*हासिल है वही।”*
लेकिन संसार के दुख का हासिल यही है कि दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।
*इश्क का कोई नतीजा नहीं*
*जुज दर्दो-आलम।*
दुख और दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।
*“लाख तदबीर किया कीजे*
*हासिल है वही।”*
यहाँ से कोशिश करो, वहाँ से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़े, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंततः तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। राख के सिवा कुछ हाथ में नहीं रह गया है। धुआँ ही धुआँ!
लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूँ जहाँ धुआँ होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूँ जहाँ आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूँ। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं,जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।
जैसे ही तुमने सुना ‘प्रेम’,कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं,उनका सबका सार आ गया। सबका निचोड़ – इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूँ वह कुछ और है । मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिन्होंने यह प्रेम किया उन सबने यहीं कहा कि वहाँ हार नहीं है, वहाँ जीत ही जीत है। वहाँ दुख नहीं है,वहाँ आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना,जिंदगी व्यर्थ गई।
*“दूर से आए थे साकीए*
*सुनकर मैखाने को हम।*
*पर तरसते ही चलेए*
*अफसोस पैमाने को हम। “*
मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए थे। दूर से आए थे साकी सुनकर मैखाने को हम. मधुशाला की खबर सुनकर कहाँ से तुम्हारा आना हुआ जारा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो। पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम. यहाँ एक घूँट भी न मिला।
मरते वक्त अधिक लोगों की आँखों में यही भाव होता है। तरसते हुए जाते हैं। हाँ, कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का; तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है।
मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूँ। आँख खोलकर एक प्रेम होता है,वह रूप से है। आँख बंद करके एक प्रेम होता है,व अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।
तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है,स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-पत्नी लड़ते रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।
मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूँ, जहाँ तुम परमात्मा से कुछ माँगते नहीं, कुछ भी नहीं। सिर्फ कहते हो, मुझे अंगीकार कर लो। मुझे स्वीकार कर लो। मुझे चरणों में पड़ा रहने दो। यह मेरा हृदय किसी कीमत का नहीं है, किसी काम का नहीं है, मगर चढ़ाता हूँ तुम्हारे चरणों में। और कुछ मेरे पास है भी नहीं। और चढ़ा रहा हूँ तो भी इसी भाव से चढ़ा रहा हूँ “श्त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पयेत्।” तेरी ही चीज है। तुझी को वापस लौटा रहा हूँ। मेरा इसमें कुछ है भी नहीं। देने का सवाल भी नहीं है,देने की अकड़ भी नहीं है। मगर तुझे और तेरे चरणों में रखते ही इस हृदय को शांति मिलती है, आनंद मिलता है,रस मिलता है। जो खंड टूट गया था अपने मूल से, फिर जुड़ जाता है। जो वृक्ष उखड़ गया था जमीन से, उसको फिर जड़ें मिल जाती हैं, फिर हरा हो जाता है, फिर रसधार बहती है, फिर फूल खिलते हैं, फिर पक्षी गीत गाते है, फिर चाँद-तारों से मिलन होता हैं।
परमात्मा से प्रेम का अर्थ है कि इस समग्र अस्तित्व के साथ मैं अपने को जोड़ता हूँ। मैं इससे अलग-अलग नहीं जिऊँगा, अपने को भिन्न नहीं मानूँगा। अपने को पृथक मानकर नहीं अपनी जीवन-व्यवस्था बनाऊँगा। मैं इसके साथ एक हूँ। इसकी जो नियति है वही मेरी नियति है। मैं इस धारा के साथ बहूँगा, तैरूँगा नहीं। यह जहाँ ले जाए! यह डुबा दे तो डूब जाऊँगा। ऐसा समर्पण परमात्म प्रेम का सूत्र है। खाली मत जाना।
*“मैकशों ने पीके तोड़े जाम-ए-मै*
*हाये वो सागर जो रक्खे रह गए।”*
ऐसे ही रक्खे मत रह जाना। पी लो जीवन का रस। तोड़ चलो ये प्यालियाँ। और उसकी नजर एक बार तुम पर पड़ जाए और तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाएगा।
*ओशो*
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