साक्षी हो जाओ।


शरीर से बहुत बंधने की जरूरत नहीं है, शरीर के दुश्मन होने की भी जरूरत नहीं है। शरीर सुंदर घर है, रहो, शरीर की देखभाल करो, अपने को शरीर ही न मान लो। मन भी प्यारा है। उसका भी उपयोग करो। उसकी भी जरूरत है। और हृदय तो और भी प्यारा है। उसमें भी जीओ। मगर, ध्यान बना रहे कि मैं साक्षी हूं।
और जिसे सतत स्मरण है कि मैं साक्षी हूं उसकी क्रांति सुनिश्चित है। जिसे स्मरण है कि मैं साक्षी हूं वह आ को उपलब्ध हो जाता है।

तुम सिर्फ साक्षी हो, वह तुम्हारा स्वरूप है। न तुम कर्त्ता हो—शरीर से कर्म होते हैं; न तुम विचारक हो—मन से विचार होते हैं; न तुम भावुक हो—हृदय से भावनाएं होती है; तुम साक्षी हो—भावों के, विचारों के,कृत्यों के। ये तुम्हारी तीन अभिव्यक्तियां हैं। और इन तीनों के बीच में तुम्हारा साक्षी है। उस साक्षी के सूत्र को पकड़ लो।
साक्षी के सूत्र को पकड़ते ही संन्यास का फूल खिल जाता है। जो कली की तरह रहा है जन्मों—जन्मों से, तत्‍क्षण  उसकी पखुडियां खुल जाती हैं। और वह फूल ऐसा नहीं जो कुम्हलाए, वह फूल अमृत है। वह फूल ऐसा नहीं जो मरे, वह आ है, असीम है। वह फूल आनंद का फूल है। वह फूल ही मोक्ष है।
➡  *'दीपक बारा नाम का' प्रवचनमाला से*

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