ओशो

मैं एक घर में कुछ दिनों तक रहा। महिला बिलकुल पागल थी सफाई के लिए। वह इतनी पागल थी कि अपने पति को भी सोफे पर बैठने नहीं देती थी—सलवट पड़ जाए—बच्चों को कमरों में घुसने नहीं देती थी। घर बड़ा था, लेकिन सफाई के कारण सबको रहना पड़ता था एक कोने मे ही, घर के एक कमरे में ही, बाकी तो सब साफ—सुथरा रहता, दर्पण की तरह चमकता रहता। कुछ दिन मैं घर में मेहमान था, मैंने उस महिला से पूछा कि घर तो तेरा मुझे पसंद आया, मगर यह घर म्यूजियम है, यह रहने योग्य नहीं, क्योंकि यहा सब डरे हुए है
—तेरा पति डरा है, तेरे बच्चे डरे हैं कि कहीं किसी चीज में कुछ खरोंच न लग जाए। कोई चलता—फिरता नहीं ठीक से, हिलता—डुलता नहीं ठीक से, तूने सबको घबड़ा रखा है, कोई कचरा भीतर न ले आए, तो सब इस तरह रह रहे हैं जैसे किसी दूसरे के घर में रह रहे हों और चोर की तरह रह रहे हैं। यह सफाई किसलिए है? आदमी सफाई करता है कि वहा रहे। रहेगा तो थोड़ी गंदगी होगी, तो फिर सफाई। मगर सिर्फ सफाई ही करते रहो और रहना भूल जाओ—ऐसे बहुत योगी तुम्हें इस देश में मिलेंगे जो दिन—रात आसन—व्यायाम—उपवास करने में लगे हैं और यह भूल ही गये कि यह सिर्फ घर की सफाई है। इसमें रहोगे कब? रहोगे कैसे?
इस से कुछ ऊपर जाते हैं, वे लोग बुद्धि की सफाई में लगते हैं। मगर वह भी सफाई है। उसी की सफाई मे जीवन मत गंवा देना। बहुत लोग विचारक होकर ही नष्ट हो जाते हैं। विचार से कभी कुछ मिलता नहीं, कोई निष्पत्ति नहीं आती हाथ में। विचार थोथी यात्रा है, शब्द ही शब्द हैं वहा। रोटी शब्द से पेट तो नहीं भरता। कितना ही सोचो रोटी शब्द पर, तो भी पेट नहीं भरता। एक रूखी—सूखी रोटी भी बेहतर है। तुम्हारे कितने ही सुंदर विचार हों रोटी के संबंध में, उन से एक रूखी—सूखी रोटी बेहतर है। और तुम परमात्मा के संबंध में लाख सोचो, उसका कोई मूल्य नहीं है।
परमात्मा के संबंध में सोचना परमात्मा को जानना नहीं है। जानना और सोचना अलग—अलग बातें है। जानना तो तब होता है, जब सोचना रुकता है। जब तक सोचना चलता है तब तक जानना नहीं होता; क्योंकि सोचने वाला आदमी सोचने मे उलझा रहता है, जानने की फुर्सत कहा, सुविधा कहां, अवकाश कहा? जो आदमी फूल के संबंध में सोच रहा है, वह फूल के सौदर्य को जी ही नहीं पाता। कोई पक्षी गीत गाता है और जो आदमी पक्षी के इस गीत के संबंध मे विचार करने लगता है—इसका ध्वनि—शास्त्र क्या है, इसकी उत्पत्ति कैसे है, इस पक्षी का कंठ कैसा होगा, उसके कंठ का यंत्र कैसा है;ध्वनि को पैदा करने वाली ध्वनि की संभावना, ध्वनि का अर्थ—इस सब में जो पड़ गया, वह व्यक्ति पक्षी के गीत के आनंद को अनुभव नहीं कर पाएगा। वह पक्षी के गीत को जानने से रह जाएगा। ऐसा ही समझो कि तुम्हें एक सुंदर कविता दी गयी और तुम इस उलझन में पड़ गये कि इसकी व्याकरण क्या है? शब्दों का जमाव कैसा है? शैली कौन सी है? नयी है कि पुरानी, आधुनिक है कि प्राचीन? फिर छंद के नियम पाले गये हैं या नहीं? मात्राएं सब अपनी जगह हैं या नहीं? अगर तुम इस सब मे पड़ गये, तो एक बात पक्की है कि तुम बहुत कुछ कविता के संबंध में जान लोगे, लेकिन कविता को जानने से वंचित रह जाओगे। या ऐसा समझो कि तुमने वीणा को बजते देखा और तुम वीणा खोलकर बैठ गये और देखा कि तार कहा बने हैं, जापान में कि जर्मनी में, लकड़ी कहा से लायी गयी? यह यंत्र बना कैसे है जिसमें इतना माधुर्यपूर्ण संगीत पैदा होता है? तुम वीणा के संबंध में बहुत कुछ जान लोगे, लेकिन संगीत के संबंध में कुछ भी न जान पाओगे।
प्रेम के संबंध में सोचने वाले लोग प्रेम से वंचित रह जाते है। यह दुर्भाग्य है, मगर ऐसा है। ईश्वर के संबंध में जो लोग जीवनभर विचार करते हैं, वे ईश्वर को जानने से वंचित रह जाते हैं।
शरीर से पार जाना है, और मन से भी पार जाना है। हृदय में आरोपित करना है जीवन—चेतना को। हृदय में जड़ें जमानी है। भाव में डुबकी लेनी है। जो भाव तक उठ पाता है, वह श्रेष्ठतम है इस जगत में, क्योंकि वही परमात्मा को जान पाता है, जी पाता है, हो पाता है।
बुद्धि मलिन है; चंचलता है बहुत, अस्थिरता है बहुत, विचार ही विचार की इतनी तरंगें हैं जैसे झील पर बहुत तरंगें हों और चांद का प्रतिबिंब न बने, और बने भी तो ऐसा लगे जैसे चांदी बिखरी है, चांद को चांद की तरह देखना असंभव हो। तो बुद्धि के लिए शुद्ध होने की प्रक्रियाएं, वही ध्यान है। वही अवधान है।

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