भीतर की यात्रा

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एक सुंदर हंस एक सागर से दूसरे सागर की ओर उड़ा जा रहा था। लंबी यात्रा और धूप की थकान से वह भूमि पर उतरकर एक कुएं की पाट पर विश्राम करने लगा। वह बैठ भी नहीं पाया था कि कुएं के भीतर से एक मेंढक की आवाज आयी, मित्र, तुम कौन हो और कहां से आए हो? वह हंस बोला, मैं एक अत्यंत दरिद्र हंस हूं और सागर पर मेरा निवास है। मेंढक का सागर से परिचित व्यक्ति से पहला ही मिलन था।

वह पूछने लगा, सागर कितना बड़ा है? हंस ने कहा, असीम। इस पर मेंढक ने पानी में एक छलांग लगाई और पूछा, क्या इतना बड़ा?

वह हंस हंसने लगा और बोला, प्यारे मेंढक, नहीं। सागर इससे अनंत गुना बड़ा है। इस पर मेंढक ने एक और बड़ी छलांग लगाई और पूछा, क्या इतना बड़ा?

उत्तर फिर भी नकारात्मक पाकर मेंढक ने कुएं की पूर्ण परिधि में कूदकर चक्कर लगाया और पूछा, अब तो ठीक है! सागर इससे बड़ा और क्या होगा?

उसकी आंखों में विश्वास की झलक थी और इस बार उत्तर के नकारात्मक होने की उसे कोई आशा न थी। लेकिन, उस हंस ने पुन: कहा, नहीं मित्र! नहीं तुम्हारे कुएं से सागर को मापने का कोई उपाय नहीं है।

इस पर, मेंढक तिरस्कार से हंसने लगा और बोला, महानुभाव, असत्य की भी सीमा होती है? मेरे संसार से बड़ा सागर कभी भी नहीं हो सकता!

मैं सत्य के खोजियों से क्या कहता हूं! कहता हूं, सत्य के सागर को जानना है, तो अपनी बुद्धि के कुओं से बाहर आ जाओ। बुद्धि से सत्य को पाने का कोई उपाय नहीं। वह अमाप है। उसे तो वही पाता है, जो स्वयं के सब बांध तोड़ देता है। उनके कारण ही बाधा है। उनके मिटते ही सत्य जाना ही नहीं जाता वरन् उससे एक्य हो जाता है।
*उससे एक हो जाना ही उसे जानना है।*

#- *भीतर की यात्रा

🌹 *ओशो* 👏👏👏👏👏

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