ओशो...
पृथ्वी पर अभी भी असंख्य मंदिर, मस्जिद, गिरजे और गुरुद्वारे हैं, जहां विधिविहित पूजा-प्रार्थना चलती है। क्या आपके देखे, वे सबके सब व्यर्थ ही हैं?
अगर व्यर्थ न होते तो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया होता। अगर व्यर्थ न होते–इतनी पूजा, इतनी प्रार्थना, इतने मंदिर, इतने गिरजे, इतने मस्जिद–अगर वे सब सच होते, अगर ये प्रार्थनाएं वास्तविक होतीं, हृदय से आविर्भूत होतीं, तो पृथ्वी स्वर्ग बन गई होती। लेकिन पृथ्वी नरक है। जरूर कहीं न कहीं चूक हो रही है।
या तो परमात्मा नहीं है, इसलिए प्रार्थनाएं व्यर्थ जा रही हैं; या प्रार्थनाएं ठीक नहीं हो रही हैं, और परमात्मा से संबंध नहीं जुड पा रहा है। बस दो ही विकल्प हैं। अब इसमें तुम चुन लो, जो तुम्हें चुनना हो। एक विकल्प है कि परमात्मा नहीं है, इसलिए प्रार्थनाएं कितनी ही करो, क्या होनेवाला है! है ही नहीं कोई वहां सुनने को, आकाश खाली और कोरा है, चिल्लाओ-चीखो–तुम पागलपन कर रहे हो। यह समय व्यर्थ ही जा रहा है, इसका कुछ उपयोग कर लेते, कुछ काम में आ जाता। और या फिर, परमात्मा है, प्रार्थना करनेवाला प्रार्थना नहीं कर रहा है, धोखा दे रहा है।
मैं दूसरा ही विकल्प स्वीकार करता हूं। मेरे देखे परमात्मा है, प्रार्थना नहीं है—इसलिए संबंध टूट गए हैं, बीच का सेतु गिर गया है।
कुछ लोगों को तो प्रार्थना भी प्राक्सी से करनी शुरू कर दी है। पुजारी कर देता है। हिंदुओं ने वह तरकीब खोज ली है। वे खुद नहीं जाते। गरीब- गुरबे चले जाएं, पर जिनके पास थोड़ी सुविधा है, वे पुजारी रख लेते हैं। मंदिर में एक व्यवसायी पुजारी है, वह पूजा कर देता है। यह प्रार्थना प्राक्सी से है।
यह भी खूब धोखा हुआ! किसको धोखा दे रहे हो? उस पुजारी को प्रार्थना से कुछ लेना-देना नहीं है। उसको सौ रुपये महीने मिलते हैं तनख्वाह, उसको तनख्वाह से मतलब है। वह प्रार्थना करता है, क्योंकि सौ रुपये लेने है। वह व्यवसाय है। अगर उसे कोई डेढ़ सौ रुपये देनेवाला मिल जाए तो इसी भगवान के खिलाफ भी प्रार्थना कर सकता है, कोई अड़चन नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन एक सम्राट के घर नौकर था, रसोइये का काम करता था। भिंडी बनाई थीं उसने। सम्राट ने बड़ी प्रशंसा की। उसने कहा कि मालिक, भिंडी तो सम्राट है। जैसे आप सम्राट हैं, शहंशाह हैं, ऐसे ही भिंडी भी सभी शाक- सब्जियों में सम्राट है।
दूसरे दिन भी भिंडी बनाई। तीसरे दिन भी भिंडी बनाई। चौथे दिन सम्राट ने थाली फेंक दी। उसने कहा कि नालायक, रोज भिंडी। तो मुल्ला ने कहा, “मालिक! यह तो जहर है! यह तो गधों को भी खिलाओ, तो न खाएं “।
सम्राट ने कहा कि नसरुद्दीन, चार दिन पहले तूने कहा था, यह शाक- सब्जियों में सम्राट है। और आज जहर है!
उसने कहा, “मालिक! हम आपके नौकर हैं, भिंडी के नहीं। हम तो आपको देखकर कहते हैं। जो आप कहते हैं वही हम कहते हैं। हम आपके नौकर हैं। भिंडी से हमें कुछ लेना- देना नहीं “। तो उस पुजारी से तुम जो चाहो करवा लो। वह तुम्हारा नौकर है, परमात्मा से कुछ लेना- देना नहीं है।
आदमी बड़ी चालाकियां करता है।
तिब्बती लामा एक चाक बना लिए हैं—प्रेयर- व्हील। उसके आरों पर, स्पोक्स पर मंत्र लिखे हैं। उसको बैठ- बैठे घुमा देते हैं हाथ से। जैसे चरखे का चाक होता है, हाथ से घुमा दिया, वह कोई पचास- सौ चक्कर लगाकर रुक जाता है। वे सोचते हैं कि इतने मंत्रों का लाभ हो गया, इतनी बार मंत्र कहने का लाभ हो गया।
एक लामा मुझ से मिलने आया था। मैंने का कि तू बिलकुल पागल है! इसमें प्लग लगा दे और बिजली में जोड़ दे। यह चलता ही रहेगा, तू सो, बैठ, जो तुझे करना हो, कर। यह भी झंझट क्यों कि इसको बार-बार हाथ से घुमाना पड़ता है, तू काम दूसरा करता है। फिर घुमाया, फिर घुमाया। और जब धोखा ही देना है, तो तूने प्लग लगाया, इसलिए तुझी को लाभ मिलेगा, जैसे चक्कर लगाने से मिलता है। जो प्लग लगाएगा उसको मिलेगा।
हम किसको धोखा दे रहे हैं?
लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन प्रार्थनाओं को कोई संबंध परमात्मा से है?
कोई मांग रहा है कि बेटा नहीं है, मिल जाए। कोई मांग रहा है कि धन नहीं है, मिल जाए। कोई मांग रहा है, अदालत में मुकदमा है, जीत जाऊं।
तुम परमात्मा की सेवा लेने गए हो, परमात्मा की सेवा करने नहीं। तुम परमात्मा को भी अपना नौकर-चाकर बना लेना चाहते हो; तुम्हारा मुकदमा जिताए, तुम्हें बच्चा पैदा करे, तुम्हारे लड़के की शादी करवाए। लेकिन तुम परमात्मा को धन्यवाद देने नहीं गए हो कि तूने जो दिया है वह अपरंपार है। तुम मांगने गए हो।
जहां मांग है वहां प्रार्थना नहीं है।
इसे तुम कसौटी समझो कि जब भी तुम मांगोगे, तब प्रार्थना झूठी हो गई। क्योंकि जब तुम धन मांगते हो तो धन परमात्मा से बड़ा हो गया। तुम परमात्मा का उपयोग भी धन पाने के लिए करना चाहते हो।
विवेकानंद के पिता मरे। शाहीदिल आदमी थे। बड़ा कर्ज छोड्कर गए। घर में तो कुछ भी न था, खाने को भी कुछ छोड़ नहीं गए थे। तो रामकृष्ण ने विवेकानंद को कहा कि तू परेशान मत हो। तू मां से क्यों नहीं कहता; मंदिर में जा और कह दे, वे सब पूरा कर देगी।
वे द्वार पर बैठ गए, विवेकानंद को भीतर भेज दिया। घंटे भर बाद विवेकानंद लौटे, आंख से आंसू बह रहे हैं, बड़े अहोभाव में। रामकृष्ण ने कहा, “कहा; “ विवेकानंद ने कहा, “अरे। वह तो मैं भूल ही गया”।
फिर दूसरे दिन भेजा। फिर वही। फिर तीसरे दिन भेजा। विवेकानंद ने कहा, “यह मुझसे न हो सकेगा। मैं जाता हूं और जब खड़ा होता हूं प्रतिमा के समक्ष, तो मेरे दुख-सुख का कोई सवाल ही नहीं रह जाता। मैं ही नहीं रह जाता तो दुख-सुख का सवाल कहा। पेट होगा भूखा, लेकिन मेरा शरीर से ही संबंध टूट जाता है। और उस महिमा के सामने क्या छोटी-छोटी बातें करनी हैं। चार दिन की जिंदगी है, भूखे भी गुजार देंगे। यह शिकायत भी कोई परमात्मा से करने की है। आप मुझे, परमहंस देव, अब दोबारा न भेजें। क्षमा करें, मैं न जाऊंगा “।
रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, “यह तेरी परीक्षा थी। मैं देखता था कि तू मांगता है या नहीं। अगर मांगता तो मेरे लिए तू व्यर्थ हो गया था। क्योंकि प्रार्थना फिर हो ही नहीं सकती, जहां मांग है। तूने नहीं मांगा, बार-बार मैंने तुझे भेजा और तू हारकर लौट आया–यह खबर है इस बात की कि तेरे भीतर प्रार्थना का खुलेगा आकाश। तेरे भीतर प्रार्थना का बीज टूटेगा, प्रार्थना का वृक्ष बनेगा। तेरे नीचे हजारों लोग छाया में बैठेंगे “।
मांग रहे हैं लोग–मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, शिवालयों में–प्रार्थना नहीं हो रही है।
मंदिर-मस्जिद में जाता ही गलत आदमी है। जिसे प्रार्थना करनी हो तो वह कहीं भी कर लेगा। जिसे प्रार्थना करने का ढंग आ गया, सलीका आ गया, वह जहां है वहीं कर लेगा। यह सारा ही संसार उसका है, उसका ही मंदिर है, उसकी ही मस्जिद है।
हर चट्टान में उसी का द्वार है!
और हर वृक्ष में उसी की खबर है!
कहां जाना है और?
“तेरे कूचे में रहकर मुझको मर मिटना गवारा है
मगर दैरो-हरम की खाक अब छानी नहीं जाती”।
भक्त तो कहता है, अब क्या मंदिर और मस्जिद की खाक छानूं तेरी गली में रहकर मर जाएंगे, बस पर्याप्त है।
और सभी तो गलियां उसकी हैं।
मैं यह नहीं कहा रहा हूं, मंदिर मत जाना। क्योंकि मंदिर भी उसका है, चले गए तो कुछ हर्ज नहीं। लेकिन विशेष रूप से जाने की कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि जहां तुम बैठे हो, वह जगह भी उसी की है। उससे खाली तो कुछ भी नहीं।
यह स्मरण आ जाए तो जब आंख बंद कीं, तभी मंदिर खुल गया;
जब हाथ जोड़े तभी मंदिर खुल गया
जहां सिर झुकाया वहीं उसकी प्रतिमा स्थापित हो गई!
झेन फकीर इक्यू एक मंदिर में ठहरा था। रात सर्द थी, बड़ी सर्द थी! तो बुद्ध की तीन प्रतिमाएं थीं लकड़ी की, उसने एक उठाकर जला दी। रात में ताप रहा था आच, मंदिर का पुजारी जग गया आवाज सुनकर, और आग और धुआ देखकर। वह भागा हुआ आया। उसने कहा, “यह क्या किया? “ देखा तो मूर्ति जला डाली है। तो वह विश्वास ही न कर सका। यह बौद्ध भिक्षु है और इसी भरोसे इसको ठहर जाने दिया मंदिर में और यह तो बड़ा नासमझ निकला, नास्तिक मालूम होता है। तो बहुत गुस्से में आ गया। उसने कहा, “तूने बुद्ध की मूर्ति जला डाली है! “ भगवान की गतइr जला डाली है! “
तो इक्यू बैठा था, राख तो हो गई थी, मूर्ति तो अब राख थी। उसने बड़ी एक लकड़ी उठाकर कुरेदना शुरू किया राख को। उस पुजारी ने पूछा, “अब क्या कर रहे हो? “ तो उसने कहा कि मैं भगवान की अस्थियां खोजता हूं। वह पुजारी हंसने लगा। उसने कहा, “तुम बिलकुल ही पागल हो–लकडी की गतइr में कहें अस्थियां हैं”!
तो उसने कहा, “फिर ऐसा करो, अभी दो मूर्तियां और हैं, ले लाओ। रात बहुत बाकी है और रात बड़ी सर्द है, और भीतर का भगवान बड़ी सर्दी अनुभव कर रहा है”।
पुजारी ने तो उसे निकाल बाहर किया क्योंकि कहीं यह और न जला दे। लेकिन उस सुबह पुजारी ने देखा कि बाहर वह सड़क के किनारे बैठा है और मील का जो पत्थर लगा है, उस पर उसने दो फूल चढ़ा दिए हैं और प्रार्थना में लीन है! तो वह गया और उसने कहा कि पागल हमने बहुत देखे हैं, लेकिन तुम भी गजब के पागल हो! रात गतइr जला दी भगवान की, अब मील के पत्थर की पूजा कर रहे हो!
उसने कहा, “जहां सिर झुकाया वहीं गतइr स्थापित हो जाती है “।
मूर्ति, मूर्ति में तो नहीं है, तुम्हारे सिर झुकाने में है। और जिस दिन तुम्हें ठीक-ठीक प्रार्थना की कला आ जाएगी, उस दिन तुम मंदिर- मस्जिद न खोजोगे–उस दिन तुम जहां होओगे, वहीं मंदिर-मस्जिद होगा, तुम्हारा मंदिर, तुम्हारी मस्जिद तुम्हारे चारों तरफ चलेगी, वह तुम्हारा प्रभामंडल हो जाएगा।
जहां-जहां भक्त पैर रखता है, वहीं- वहीं एक काबा और निर्मित हो जाता है। जहां भक्त बैठता है, वहां तीर्थ बन जाते हैं। तीर्थों में थोड़े ही भगवान मिलता है, जिसको भगवान मिल गया है, उसके चरण जहां पड़ जाते हैं वहीं तीर्थ बन जाते हैं। ऐसे ही पुराने तीर्थ बने हैं।
काबा के कारण काबा महत्वपूर्ण नहीं है, वह मोहम्मद से सिजदा के कारण महत्वपूर्ण है, अन्यथा पत्थर था। लेकिन किसी को सिर झुकाना आ गया, इस कारण महत्वपूर्ण है।
सारे तीर्थ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि कभी वहां कोई भक्त हुआ, कभी कोई वहां मिटा, कभी किसी ने अपने बूंद को वहां खोया और सौर को निमंत्रण दिया। वे याददाश्त हैं! वहां जाने से तुम्हें कुछ हो जाएगा, ऐसा नहीं—लेकिन, अगर तुम्हें कुछ हो जाए, तो तुम जहां हो वहीं तीर्थ बन जाएगा, ऐसा जरूर है। $$
भक्ति सूत्र–(प्रवचन–06)
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