*अबुद्धों की तो भीड़ है। एक खोजो हजार मिलते हैं ..*
........................भगवान के यह कहने पर कि चार माह के पश्चात मेरा परिनिर्वाण होगा भिक्षु अपने को रोक नहीं सके— जार— जार रोने लगे भिक्षुओं के आंसू बहने लगे। भिक्षुओं की तो क्या कही जाए बात अर्हतों के भी धर्मसंवेग का उदय हुआ। उनकी आंखें तो आंसुओ से नहीं भरी लेकिन हृदय उनका भी डांवाडोल हो गया
उस समय धम्माराम नाम के एक स्थविर ने यह सोचकर कि मैं अभी रागरहित नहीं हुआ और शास्ता का परिनिर्वाण होने जा रहा है इसलिए शास्ता के रहते ही मुझे अर्हत्व प्राप्त कर लेना चाहिए— ऐसा सोच एकांत में जाकर समग्र संकल्प से साधना में लग गया
धम्माराम उस दिन से एकांत में रहते मौन रखते ध्यान करते। भिक्षुओं के कुछ पूछने पर भी उत्तर नहीं देते थे स्वभावत; भिक्षुओं को इससे चोट लगी। धम्माराम अपने को समझता क्या है? पूछने पर उत्तर नहीं देता। उपेक्षा करता है। इस तरह चलता है जैसे अकेला है कोई यहां है ही नहीं।
वहा दस हजार भिक्षु थे बुद्ध के पास। यह धम्माराम भूल ही गया उन दस हजार भिक्षुओं को। स्वभावत: अनेक को चोटें लगीं। अनेक को बात जंची नहीं। लोग जयरामजी करते, उसका भी उत्तर नहीं देता था! बात ही छोड़ दी थी यह। जैसे संसार मिट गया।
भिक्षुओं ने यह शिकायत भगवान से की भगवान ने उन्हें कहा. धम्माराम को बुला लाओ।
धम्माराम के आने पर पूछा. भिक्षु! तुझे क्या हुआ है? क्या यह सत्य है कि तू अन्य भिक्षुओं से बातें नहीं करता है?
भंते! सत्य है धम्माराम ने कहा।
भिक्षु। तू ऐसा क्यों कर रहा है?
तब धम्माराम ने अपने सारे विचारों को कह सुनाया उसने कहा. आप जाते हैं चार महीने का समय बचा आपके रहते अगर मैं मुक्त नहीं हो जाता हूं तो फिर मेरे लिए कोई आशा नहीं है आपकी मौजूदगी में अगर मेरा दीया नहीं जल सका तो मैं नहीं सोचता हूं कि फिर कभी जल सकेगा फिर कहां खोला ऐसे बुद्धपुरुष को? फिर जन्मों— जन्मों भटकना पड़ेगा। इसलिए अब एक रत्तीभर भी शक्ति किसी और बात में नहीं गंवाना चाहता हूं। एक आंसू भी नहीं गिराना चाहता हूं। एक शब्द भी नहीं बोलना चाहता हूं। ये चार महीने जो भी मेरे पास है सब दांव पर लगा देना है। अगर इस बार हो जाए तो हो जाए इतने करीब आकर चूक जाऊं भगवान। तो फिर कितना समय लगेगा! फिर कहां खोज पाऊंगा? फिर कब कोई किसी बुद्ध से मिलना होगा?
*अबुद्धों की तो भीड़ है। एक खोजो हजार मिलते हैं लेकिन बुद्धों को कहां खोजूंगा? हजारों जन्म बीत जाएंगे। और शायद है— भटक जाऊं। आपके रहते न पहुंच पाया तो अकेले तो बिलकुल भटक जाऊंगा यह सोचकर मैने सारी ऊर्जा को अपने भीतर समाहित कर लिया है।*
अब मेरे पास तीन ही काम हैं : एकांत— एकांत यानी दूसरों को भूल जाना; मौन— दूसरों से संबंध न जोड़ना वाणी का विचार का; और ध्यान— भीतर विचार की तरंग को विसर्जित करना।
ये तीन उपाय हैं समाधि के। दूसरे नहीं हैं जैसे—ऐसे जीना। अपने पास कहने को भी कुछ नहीं है; बोलने को भी कुछ नहीं है—ऐसे जीना। और अपने भीतर सोचने को भी क्या है? सब कूड़ा—करकट है। इस कूड़ा—करकट को क्यों उलटते —पलटते रहना!
ऐसा तीन भावों से जो भर जाए—एकांत, मौन और ध्यान—एक दिन उसके जीवन में समाधि फलित होती है। एक दिन सब शून्य हो जाता है।
*खयाल रखना एकांत में दूसरे मिट जाते हैं। मौन में शब्द मिट जाते हैं। ध्यान में विचार मिट जाते हैं। और समाधि में स्वयं का मिटना हो जाता है, शून्य हो जाता है।* उसने सारी बात बुद्ध को कही। उसे सुनकर बुद्ध ने उसे साधुवाद दिया और कहा भिक्षुओ! अन्य भिक्षुओं को भी जिन्हें मुझ पर प्रेम हो धम्माराम के समान ही होना चाहिए। माला— गंध आदि से मेरी पूजा करने वाले मेरी पूजा नहीं करते। अपने को धोखा देते हैं। प्रत्युत जो धर्म के अनुसार आचरण करते हैं वे ही मेरी पूजा करते हैं। आंसुओ के बहाने से कोई सार नहीं है। और फिर जो वैसा करते हैं वे मुझे समझे ही नहीं। क्योकि कितनी बार तो मैने तुमसे कहा : यहां सभी अथिर है। जो जन्मा है मरेगा। जो हुआ है मिटेगा। इस अथिर से मोह मत बनाओ। और तुमने मुझसे मोह बना लिया! जो मुझसे मोह बना लिए हैं वे मुझे समझे नहीं। रोओ नहीं। रोने से कुछ होगा भी नहीं। बहुत रो लिए। जन्मों— जन्मों रो लिए। अब बंद करो। सोओ भी नहीं। रोना भी जाने दो; सोना भी जाने दो। अब जागो।
*ओशो*
वहा दस हजार भिक्षु थे बुद्ध के पास। यह धम्माराम भूल ही गया उन दस हजार भिक्षुओं को। स्वभावत: अनेक को चोटें लगीं। अनेक को बात जंची नहीं। लोग जयरामजी करते, उसका भी उत्तर नहीं देता था! बात ही छोड़ दी थी यह। जैसे संसार मिट गया।
भिक्षुओं ने यह शिकायत भगवान से की भगवान ने उन्हें कहा. धम्माराम को बुला लाओ।
धम्माराम के आने पर पूछा. भिक्षु! तुझे क्या हुआ है? क्या यह सत्य है कि तू अन्य भिक्षुओं से बातें नहीं करता है?
भंते! सत्य है धम्माराम ने कहा।
भिक्षु। तू ऐसा क्यों कर रहा है?
तब धम्माराम ने अपने सारे विचारों को कह सुनाया उसने कहा. आप जाते हैं चार महीने का समय बचा आपके रहते अगर मैं मुक्त नहीं हो जाता हूं तो फिर मेरे लिए कोई आशा नहीं है आपकी मौजूदगी में अगर मेरा दीया नहीं जल सका तो मैं नहीं सोचता हूं कि फिर कभी जल सकेगा फिर कहां खोला ऐसे बुद्धपुरुष को? फिर जन्मों— जन्मों भटकना पड़ेगा। इसलिए अब एक रत्तीभर भी शक्ति किसी और बात में नहीं गंवाना चाहता हूं। एक आंसू भी नहीं गिराना चाहता हूं। एक शब्द भी नहीं बोलना चाहता हूं। ये चार महीने जो भी मेरे पास है सब दांव पर लगा देना है। अगर इस बार हो जाए तो हो जाए इतने करीब आकर चूक जाऊं भगवान। तो फिर कितना समय लगेगा! फिर कहां खोज पाऊंगा? फिर कब कोई किसी बुद्ध से मिलना होगा?
*अबुद्धों की तो भीड़ है। एक खोजो हजार मिलते हैं लेकिन बुद्धों को कहां खोजूंगा? हजारों जन्म बीत जाएंगे। और शायद है— भटक जाऊं। आपके रहते न पहुंच पाया तो अकेले तो बिलकुल भटक जाऊंगा यह सोचकर मैने सारी ऊर्जा को अपने भीतर समाहित कर लिया है।*
अब मेरे पास तीन ही काम हैं : एकांत— एकांत यानी दूसरों को भूल जाना; मौन— दूसरों से संबंध न जोड़ना वाणी का विचार का; और ध्यान— भीतर विचार की तरंग को विसर्जित करना।
ये तीन उपाय हैं समाधि के। दूसरे नहीं हैं जैसे—ऐसे जीना। अपने पास कहने को भी कुछ नहीं है; बोलने को भी कुछ नहीं है—ऐसे जीना। और अपने भीतर सोचने को भी क्या है? सब कूड़ा—करकट है। इस कूड़ा—करकट को क्यों उलटते —पलटते रहना!
ऐसा तीन भावों से जो भर जाए—एकांत, मौन और ध्यान—एक दिन उसके जीवन में समाधि फलित होती है। एक दिन सब शून्य हो जाता है।
*खयाल रखना एकांत में दूसरे मिट जाते हैं। मौन में शब्द मिट जाते हैं। ध्यान में विचार मिट जाते हैं। और समाधि में स्वयं का मिटना हो जाता है, शून्य हो जाता है।* उसने सारी बात बुद्ध को कही। उसे सुनकर बुद्ध ने उसे साधुवाद दिया और कहा भिक्षुओ! अन्य भिक्षुओं को भी जिन्हें मुझ पर प्रेम हो धम्माराम के समान ही होना चाहिए। माला— गंध आदि से मेरी पूजा करने वाले मेरी पूजा नहीं करते। अपने को धोखा देते हैं। प्रत्युत जो धर्म के अनुसार आचरण करते हैं वे ही मेरी पूजा करते हैं। आंसुओ के बहाने से कोई सार नहीं है। और फिर जो वैसा करते हैं वे मुझे समझे ही नहीं। क्योकि कितनी बार तो मैने तुमसे कहा : यहां सभी अथिर है। जो जन्मा है मरेगा। जो हुआ है मिटेगा। इस अथिर से मोह मत बनाओ। और तुमने मुझसे मोह बना लिया! जो मुझसे मोह बना लिए हैं वे मुझे समझे नहीं। रोओ नहीं। रोने से कुछ होगा भी नहीं। बहुत रो लिए। जन्मों— जन्मों रो लिए। अब बंद करो। सोओ भी नहीं। रोना भी जाने दो; सोना भी जाने दो। अब जागो।
*ओशो*
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